Friday, March 14, 2014

About Bhairavi Sadhana

भैरवी - भाग १
स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते हैं।

तंत्र के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के उपरांत साधक को किसी न किसी चरण में भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना पड़ता ही है। यह तंत्र एक निश्चित मर्यादा है। प्रत्येक साधक, चाहे वह युवा हो, अथवा वृद्ध, इसका उल्लंघन कर ही नहीं सकता, क्योंकि भैरवी 'शक्ति' का ही एक रूप होती है, तथा तंत्र की तो सम्पूर्ण भावभूमि ही, 'शक्ति' पर आधारित है। कदाचित इसका रहस्य यही है, कि साधक को इस बात का साक्षात करना होता है, कि स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते है, क्योंकि उन्हें ही अपने किसी शिष्य की भावनाओं व् संवेदनाओं का ज्ञान होता है। इसी कारणवश तंत्र के क्षेत्र में तो पग-पग पर गुरु साहचर्य की आवश्यकता पड़ती है, अन्य मार्गों की अपेक्षा कहीं अधिक।

जब इस मर्यादा का किसी कारणवश लोप हो गया और समाज की स्मृति में केवल इतना ही शेष रह गया, कि तंत्र के क्षेत्र में भैरवी का साहचर्य करना होता है, तभी व्यभिचार का जन्म हुआ, क्योंकि ऐसी स्थिति में पग-पग संभालने के लिए सदगुरुदेव की वह चैतन्य शक्ति नहीं रही। यह भी संभव है, कि कुछ दूषित प्रवृत्तियों के व्यक्तियों ने एक श्रेष्ठ परम्परा को अपनी वासनापूर्ति के रूप में अपना लिया हो, किन्तु यह तो प्रत्येक दशा में सत्य है ही, कि इस मार्ग में सदगुरु की महत्ता को विस्मृत कर दिया गया।

जो श्रेष्ठ साधक है, वे जानते है, कि तंत्र के क्षेत्र में प्रवेश के पूर्व श्मशान पीठ एवं श्यामा पीठ की परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी होती हैं, तभी साधक उच्चकोटि के रहस्यों को जानने का सुपात्र बन पाता है। भैरवी साधना इसी श्रेणी की साधना है, किन्तु श्यामा पीठ साधना से कुछ कम स्तर की। वस्तुतः जब भैरवी साधना का संकेत सदगुरुदेव से प्राप्त हो जाय, तब साधक को यह समझ लेना चाहिए, कि वे उसे तंत्र की उच्च भावभूमि पर ले जाने का मन बना चुके हैं। भैरवी साधना, भैरवी साधना के उपरांत श्यामा साधना और तब वास्तविक तंत्र की साधना का प्रारम्भ होता है, जहां साधक अपने ही शरीर के तंत्र को समझता हुआ, अपनी ही अनेक अज्ञात शक्तियों से परिचय प्राप्त करता हुआ न केवल अपने ही जीवन को धन्य कर लेता है, वरन सैकडों-हजारों के जीवन को भी धन्य कर देता है।

व्यक्ति के अनेक बंधनों में से सर्वाधिक कठिन बंधन है उसकी दैहिक वासनाओं का - और तंत्र इसी पर आघात कर व्यक्ति को एक नया आयाम दे देता है। वास्तविक तंत्र केवल वासना पर आघात करता है, न कि व्यक्ति की मूल चेतना पर। इसी कारणवश एक तांत्रिक किसी भी अन्य योगी या यति से अधिक तीव्र एवं प्रभावशाली होता है।

'भैरवी' के विषय में समाज की आज जो धारणा है, उसे अधिक वर्णित करने की आवश्यकता ही नहीं, किन्तु मैंने अपने जीवन में भैरवी का जो स्वरुप देखा, उसे भी वर्णित कर देना अपना धर्म समझता हूं। शेष तो व्यक्ति की अपनी भावना पर निर्भर करता है, कि वह इसे कितना सत्य मानता है अथवा उसे अपनी धारणाओं के विपरीत कितना स्वीकार्य होता है।

आज से कई वर्ष पूर्व मैं अपने सन्यस्त जीवन में साधना के कठोर आयामों से गुजर रहा था, उसी मध्य मुझे भैरवी-साहचर्य का अनुभव मिल सका। संन्यास का मार्ग एक कठोर मार्ग तो होता ही है, साथ ही उसकी कुछ ऐसी जटिलताएं होती हैं, जिसे यदि मैं चाहूं, तो वर्णित नहीं कर सकता, क्योंकि वे भावगत स्थितियां होती हैं, जिन्हें योग की भाषा में आलोडन-विलोडन कहते हैं। संन्यास केवल बाह्य रूप से ही एक कठोर दिनचर्या नहीं है, वरन उससे कहीं अधिक आतंरिक कठोरता की दूःसाध्य स्थिति भी है। कब किस समय गुरुदेव का कौन सा आदेश मिल जाय और बिना किसी हाल-हवाले या ना-नुच के उसे तत्क्षण पूर्ण भी करना पड़े, इसको तो केवल सन्यस्त गुरु भाई-बहन समझ सकते हैं।


भैरवी - भाग २
इसी प्रकार, इसी क्रम में एक दिन मुझे सहसा एक गुरु भाई के द्वारा आज्ञा मिली, कि पूज्य गुरुदेव (निखिलेश्वरानंदजी) ने तत्क्षण एक विशिष्ठ स्थान पर जाने की बात कही है और वहां जाकर एक विशिष्ट साधिका के पास तब तक उसकी अनुज्ञा में रहना होगा, तब तक कि मुझे अगली आज्ञा न मिले। मैंने ऐसा ही किया और दो दिवस बाद एक विशिष्ट स्थान पर पहुंच गया, जहां मुझे किसी विशिष्ट साधिका से भेंट करनी थी।

उस गहन वन-प्रांत में मानों मेरे आने का समाचार किसी दूरसंचार के द्वारा ही पहले पहुंच गया था और एक प्रकार से स्वागत के लिए वह विशिष्ट साधिका पहले से ही तत्पर थी।

- किन्तु यह क्या ??

मैं उसकी वेशभूषा देखकर आश्चर्य से भूमि पर ठोकर खाकर गिरते-गिरते ही बचा। लगभग तीस-पैंतीस वर्ष के एक स्वस्थ एवं प्रायः काली महिला, जो मेरे 'स्वागत' में सामने आयी थी, वह पूर्णतया निर्वस्त्र ही थी ... उसकी सपूर्ण देहयष्टि पर एक आभूषण तक भी नहीं था, जिसे मैं उसके वस्त्र मानकर उसे आच्छादित कल्पित भी कर लेता। मैंने अपने सम्पूर्ण संन्यस्त जीवन में कभी इस प्रकार किसी स्त्री को सर्वथा नग्न नहीं देखा था, अतः मेरे संस्कारों एवं वास्तविकता के मध्य द्वन्द्व उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ही था।

कुछ आश्चर्य, कुछ लज्जा और किसी अंश तक जुगुप्सा से भर कर मैंने अपने नेत्र नीचे कर लिए, किन्तु इसके उपरांत भी मेरे मन में वासना का लेशमात्र भी संचार नहीं हो सका था। यह कहकर में अपनी प्रशंसा करने का इच्छुक नहीं हूं, क्योंकि अपनी दृष्टि की स्वछता तो प्रत्येक व्यक्ति अपने मन में जानता ही है।

इसके पीछे उसके व्यक्तित्व का कोई विलक्षण प्रभाव एवं उसके तप की गरिमा का आभामंडल था, इसे स्वीकार करने में मुझे कोई भी संकोच नहीं।

मैं पता नहीं उस दशा में कब तक संकुचित सा खडा रहता, किन्तु उसकी गुरु-गंभीर वाणी से सचेतन हो गया -

'चलो' के संक्षिप्त सम्बोधन से उसने मुझे तर्जनी से एक और इंगित किया और मैं सम्मोहन सा उसका अनुसरण करने लगा। अपने मन के संकोच एवं संस्कारों के द्वन्द्व से उबरने के लिए मैंने वार्तालाप का एक क्रम प्रारम्भ करना चाहा और अपना परिचय देने का प्रयास किया, किन्तु उसके तो कानों में कोई ध्वनि जैसे जा ही नहीं रही थी और में झेंप कर चुप हो गया।

अपने निवास स्थान पर पहुंचकर (जो कि एक छोटी सी झोपडी ही थी) उसने मुझे एक ओर बैठने की आज्ञा दी और चुपचाप भीतर से जाकर एक मिट्टी के पात्र में कोई जंगली साग और किसी जंगली दाने की मोटी-मोटी रोटियों के साथ एक पात्र में जल भी लेती आयी। मेरा हाथ-पांव धुलवा कर उसने मुझे भोजन करने की आज्ञा दी। उसकी प्रत्येक बात संक्षिप्त एवं आज्ञात्मक स्वर में ही संपन्न हो रही थी तथा मैं अपना सारा विज्ञान भूला कर उसकी आज्ञा का बिना किसी चूं-चपड़ के पालन भी करता जा रहा था ...

किन्तु भोजन करने के नाम पर मैं झिझक से भर गया, क्योंकि विगत कई वर्षों से मैं अपना भोजन स्वयं ही बनाता आया था और किसी विशेष परिस्थिति में केवल किसी गुरु भाई के हाथ का बना भोजन ग्रहण करता था।

- क्योंकि स्त्रियों के साथ उनकी शारीरिक शुचिता का एक अनिवार्य लक्षण जुडा ही होता है तथा वर्त्तमान युग में उस विशेष काल में सभी कार्यों से विरत रहना हास्यास्पद माना जाने लगा है। केवल सामान्य स्त्रियां ही नहीं, वरन साधिकाएं भी इस प्रकार की बातों को ढकोसला मानती हैं, जबकि ऐसा उनके प्रति किसी अपमानवश अथवा द्वेषवश नहीं वरन मर्यादावश ही निर्धारित किया गया है।

मेरा संकोच उसके सामने तब एक और ही धरा रह गया, जब उसने थाली को मेरे सामने सरकाते हुए पुनः आज्ञा दी - 'खाओ'।

भैरवी - भाग ३
मैं चुपचाप उस भोजन को ग्रहण करने लगा, जो आश्चर्यजनक रूप से अत्यन्त स्वादिष्ट एवं क्षुधावर्धक था। भोजन प्रारम्भ करने के उपरांत पुनः वही मौन व्याप्त हो गया और इस विचित्र स्थिति से बचने के लिए मैंने जब अपना सर उठा कर कुछ बात प्रारम्भ करनी चाही, तो देखा, कि उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसी तरलता आ गई है, जो कि किसी मां के चेहरे पर अपनी संतान को भोजन कराते सायं आ जाती है और वह स्वयं को ही तृप्त अनुभव करती है। फिर तो वह उसी स्निग्धता से भरी मुझे खिलाती रही और मैं सब कुछ भूलकर पता नहीं कितना अधिक भोजन ग्रहण कर गया।

भोजन के उपरांत उसने उसी झोपडी में एक ओर बीछे पुआल की ओर संकेत कर दिया और मैं दो दिनों की थकान व भोजन से बोझिल होकर उस पर जा गिरा और तत्क्षण ही निद्रा की गोद में चला गया। उस समय सायंकाल की समाप्ति होकर रात्रि का प्रथम प्रहार आरम्भ हो रहा था।

... संभवतः रात्री का मध्य काल रहा होगा, जब मेरी आंख खुली। झोपडी में एक ओर जलती किसी तैलयुक्त जंगली जडी के प्रकाश में पूरी झोपडी ही मंद प्रकाश से आलोकित हो रही थी और एक कोने में वही भैरवी अपने आसन पर मेरी ओर पीठ करके आसीन थी। उसने अपने घने काले केशों को खोलकर पूरी पीठ पर फैला दिया था और आखे बंद कर पता नहीं किस क्रिया में तल्लीन थी।

यहां मैं इस बात का उल्लेख करना चाहूंगा, कि उसकी झोपडी में न कहीं कोई यज्ञकुंड था, न तरह-तरह के फूल बिखरे थे, न कहीं सिन्दूर पुता हुआ था और न ही किसी धुप या लोबान की मादक गंध थी - जैसा कि अनेक साधक 'भैरवी' शब्द सुनकर कल्पित कर लेते हैं। नितांत एक सामान्य गृहस्थ महिला की ही भांति उसका सम्पूर्ण आचरण था, केवल इस अन्तर से, कि वह वस्त्रादि की आवश्यकता से सर्वथा मुक्त थी।

पूज्यपाद गुरुदेव ने कभी बताया था, कि साधना की एक दशा ऐसी भी आ जाती है, कि साधक को स्वयं की देह का बोध ही नहीं रहता और फलस्वरूप वह नग्न ही रहने लग जाता है, कदाचित वह भैरवी उसी का जीता-जागता प्रमाण थी। मुझे पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीमुख से सुनी एक एनी घटना का स्मरण हो आया। घटना यह थी, कि -

महावीर स्वामी कभी अपनी वस्त्रहीनता की स्थिति में कहीं पहुंचे तो लोगों ने उनसे पूछा - 'आप नग्न क्यों हैं?'

उत्तर में उन्होंने कहा - 'नग्न मैं नहीं हूं, आप हैं, क्योंकि आपकी आंखों में 'नग्नता' अनुभव करने का भाव है।'

मैं जितनी बार उस भैरवी को 'नग्न' देखता, उतनी ही बार मुझे पूज्यपाद गुरुदेव की उक्त बात स्मरण आ जाती और मुझे एक तमाचा सा लगता। इन्हीं उहापोहों में मैं पुनः निद्रामग्न हो गया।

दुसरे दिन की प्रातः से मेरे पास कोई भी काम नहीं था, क्योंकि पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा था, कि साधना का अगला क्रम वे वहीं आकर बतायेंगे। कोई गृहकार्य भी नहीं था, फलतः मैं घूमने निकल पडा और प्रकृति के विविध रूपों को निहारता रहा। दोपहर हो जाने पर आकर भोजन किया और पुनः वही घूमना व् प्रकृति को निहारना। रात्रि में पुनः भोजन और विश्राम। धीरे-धीरे यही मेरी दिनचर्या हो गई। मुझे लगने लगा, कि मेरा बचपन ही वापस आ गया है। कोई चिंता नहीं, कोई दायित्व नहीं और धीरे-धीरे मैं पुनः किलकारी मार कर हंसने की अपनी पुरानी आदत में लौट आया।

भैरवी के चेहरे पर निरन्तर बनी रहती एक गरिमामय स्मित मुझे एक अभय देती थी। वह साक्षात मातृस्वरूपा ही थी। मैंने अपने साधक जीवन में ऐसी भी स्त्रियां एवं साधिकाएं देखी थी, जो तथाकथित रूप से नारी सुलभ लज्जा ढोते हुए भी घोर कामुक एवं घृणित लगती थीं दूसरी और यह भैरवी थी, जो पूर्णतया नग्न होते हुए भी गरिमामय और मातृवत थीं। मेरा उससे कोई वार्तालाप नहीं होता था, और ऐसा ही लगता था, कि मैं कोई अबोध शिशु हूं, जो बोलना नहीं सीख पाया हो, इसके उपरांत भी 'संवाद' हो ही जाता था।

भैरवी - भाग ४
मेरे संस्कार यद्यपि प्रबल होते थे। वह 'स्त्री' है मन में ऐसा भी भाव आता था, उसके स्पर्शित भोजन को ग्रहण करने में भी संकोच होता था, किन्तु उसके सामने मैं सब कुछ भूल जाता था। मन में मैंने मान लिया था, कि इस स्थिति में पूज्य गुरुदेव ने ही रखा है, अतः उचित-अनुचित का निर्धारण भी वे ही कर लेंगे और मैं सर्वथा द्वन्द्व रहित हो गया।

इन्हीं दिनों के बीच जब एक दिन मैं कहीं से घूम कर लौटा, तो पाया, कि पूज्यपाद गुरुदेव उस भैरवी के समक्ष विद्यमान हैं और उस दिन उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था, जैसे कोई छः-सात माह की बच्ची अपनी माता को पास पाकर दुबक जाती है। मैंने उन्हें प्रणाम किया और एक ओर हट कर बैठ गया।

दोनों में पता नहीं क्या मूक संभाषण हो रहा था, कि सहसा जैसे कोई सम्मोहन टूटा और पूज्यपाद गुरुदेव की गुरु गंभीर वाणी गूंज उठी- "अच्छा अनुगुज्जनी! मैं इसे लेकर जा रहा हूं।" उसने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और मैं पूज्यपाद गुरुदेव के साथ वापस आ गया।

कई दिनों तक मेरे मन में यह रहस्य बना रहा, कि इस प्रकार मुझे उस भैरवी के सान्निध्य में रखने का पूज्यपाद गुरुदेव का क्या अभिप्राय हो सकता है, किन्तु समझ न सका, अंततोगत्वा मैंने एक दिन साहस करके पूछ ही लिया। उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव के मुख मण्डल पर एक स्निग्ध स्मित छा गई।

उन्होनें बताया- वह वास्तव में श्यामा साधना का प्रथम चरण था और यह अनुभव कराना था, कि स्त्री का एक पक्ष मातृरूपेण भी होता है।

मैंने हलके से प्रतिरोधात्मक स्वर में कहा - "किन्तु गुरुदेव! उन पूर्व के दृढ़ नियमों के उपरांत इतनी बन्धनहीनता? मैंने इतने दिन पता नहीं क्या-क्या भक्ष्य-अभक्ष्य खाया होगा, उसका कैसे प्रायश्चित करूं?"

उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव केवल एक सूत्र बोलकर मौन हो गए - "जब तू पालने में पडा रहता, तो क्या अपनी मां से उसकी शुचिता-अशुचिता का प्रश्न पूछता?"

उनके एक ही वाक्य से मेरे मस्तिक्ष के सभी बंद कपाट खुल गए। यह केवल मातृत्व का अनुभव कराना ही नहीं था, अपितु इस बात का भी बोध कराना था, कि अंततोगत्वा मैं वही अशक्त बालक ही हूं। मैंने तत्क्षण इस बात को स्वीकार भी कर लिया, क्योंकि पिछले कई दिनों में मैं समझ ही गया था, कि पोषण तो वही जगज्जननी ही करती है, भले ही किसी भी रूप में करे। अतः मन में किसी भ्रम अथवा आचार-विचार का दृढ़ धारण रखने से कोई लाभ नहीं।

पूज्यपाद गुरुदेव के इस सूत्र को आधार बनाकर जब मैंने आत्मविवेचन किया, तो मेरे समक्ष साधना जगत के कई रहस्य इस प्रकार खुलते चले गए, जिस प्रकार किसी ग्रन्थ के पन्ने एक हल्के से स्पर्श से ही खुलते चले जाते हैं। इस गहन आत्मविवेचन के पश्चात मेरे समक्ष उनके चरणों में लौट जाने के अतिरिक्त न तो कोई प्रणाम-मुद्रा थी और न ही अश्रु-प्रवाह के अतिरिक्त कोई पूजन सामग्री। ऐसे अर्ध्य निवेदन के पश्चात जब मैंने उनसे निवेदन किया, कि वे कृपा करके इस ज्ञान को सार्वजनिक क्यों नहीं करते, जिससे अनेक साधक अपने जीवन को धन्य कर सकें, तो उत्तर में उनका पुनः संक्षिप्त वचन था- "मैं किसी नूतन विवाद को जन्म नहीं देना चाहता।"

पूज्यपाद गुरुदेव के इस कथन में वेदना छूपी थे, क्योंकि समाज अपनी आघातकारी प्रवृत्ति के सामने उनके ज्ञान का मूल्यांकन करने की धारणा तक नहीं बना पा रहा है, जिसका और कोई परिणाम हो या न हो, किन्तु साधना के अनेक रहस्य, अनेक भावभूमियां लुप्त हो जायेंगी, इसका ही खेद है। जब उनकी सामान्य क्रियायों पर ही आलोचना-प्रत्यालोचना की बाढ़ आती रहती है, तो इस प्रकार की क्रियायों का सार्वजनकीकरण करने पर तो पता नहीं क्या-क्या आरोप लग जायेंगे! महावीर स्वामी की वाणी में कहें, तो सत्य यही है, कि नग्न तो समाज है।"

मुझे एक घटना याद आती है, कि जब वर्ष १९९० में वाराणसी नगर में महाशिवरात्रि पर्व का आयोजन एवं शिविर लगा था, तब वहां के कुछ बुद्धिजीवियों ने कैसा विरोध प्रकट किया था। यज्ञ स्थल को घेर कर प्रदर्शन, गुरुदेव के निवास स्थान पर जाकर अपशब्द कथन एवं धमकियों के बाद भी जब वे साधना शिविर को भंग करने में असफल रहे, तो उन्होनें स्थानीय अखबारों का सहारा लिया, जिसमें अत्यन्त अश्लील भाषा में जो कुछ छापा, उसे मैं यहां वर्णित कर ही नहीं सकता। यह वही नगर है, जिसने युगपुरुष परमहंस स्वामी विशुध्वानन्द जी पर वेश्यागामी होने तक का आरोप लगाया था।

किन्तु यह भी सत्य है, कि समाज जब तक भैरवी साधना या श्यामा साधना जैसी उच्चतम साधनाओं की वास्तविकता नहीं समझेगा, तब तक वह तंत्र को भी नहीं समझ सकेगा, तथा, केवल कुछ धर्मग्रंथों पर प्रवचन सुनकर अपने आपको बहलाता ही रहेगा।

पूज्यपाद गुरुदेव की आज्ञा को ध्यान में रखकर इसी कारणवश मैं भैरवी साधना की पूर्ण एवं प्रामाणिक साधना विधि प्रस्तुत करने में असमर्थ हूं, किन्तु मेरा विश्वास है, कि कुछ साधक ऐसे होंगे ही, जो साधना के मर्म को समझते होंगे तथा व्यक्तिगत रूप से आगे बढकर उन साधनाओं को सुरक्षीत कर सकेंगे, जो हमारे देश की अनमोल थाती हैं।

साधनाएं केवल साधकों के शरीरों के माध्यम से संरक्षित होती है, उन्हें संजो लेने के लिए किसी भी कैसेट या फ्लापी या डिस्क न तो बन सकी है, न बनेगी। आशा है, गंभीर साधक इस बात को विवेचानापूर्वक आत्मसात करेंगे।

- एक शिष्य
-मंत्र-तंत्र-यंत्र पत्रिका, अप्रैल १९९६

shiv shakti sadhana part1

साधना मंत्र और सफलता भाग ४

हमारे जीवन मैं बहुत से साधना का ज्ञान मिला पर फिर भी असफलता मिली तो हम निराश हो जाते और पर आपने कमी को हम पहचान नहीं सके कमी बस प्रयास मैं थी मंत्र और साधना मैं कमी नहीं थी , आप के पूर्व जन्म के पाप दोस इतने जादा हो सकते है की आप को सफलता तो मिला पर वो सफलता आप के क़र्ज़ रूपी पाप दोस मैं ख़तम करने मैं चला जाता है। जिस से आप को लगता है कुच्छ मिला नहीं एस साधना से ..

जीवन मैं सफल वही हो सका है जिस ने प्रयास किया है। .
गुरु पूजन कर आप गुरु मंत्र जाप करे गायत्री मंत्र चेतना मंत्र जाप के बाद

१/२ घंटे जाप करे रुदाक्ष की माला से kare। . ये साधना आप पारद शिव लिंग पर पूजा कर
जाप करे तो आप की हर मनोकामना सहित अजर अमर भी बन सकते है। .
ये शिव शक्ति का गोपनीय मंत्र जिस के जाप से पाप समाप्त होता ही है साथ मैं मनोकामना भी पुण्य होता है.

दिशा उतर १/२ घंटे जाप करे रुदाक्ष की माला ,आज्ञा चक्र ध्यान कर जाप करे २१ दिन या ४० दिन तक उस के बाद इसी मंत्र से १/२ घंटे तक इसी मंत्र हवन कर लिया जाये तो १००% उस के भाग्य खुल जाते है। .

ह्रीं ॐ नमः शिवाय ह्रीं !

ये साधना गुरु के आज्ञा के अनुसार करना चहिये। . नहीं तो  शक्ति के आ जाने आप आपना ही अहित कर लेगे। 

Goddess Saraswati Ji sadhana will grace full Holi


माँ सरस्वती जी कृपा करेगी होली के दिन....
विद्यार्थी जीवन काल मे माँ सरस्वती जी के साबर मंत्र का साधना करनेसे उत्तम फल का प्राप्ति होता है,इस साधना से साधक को जहा माँ का आशीष मिलता है वही मेधा शक्ति का वृद्धि भी होता है॰एक बात हमेशा याद रखना जरूरी है “मंत्र कभी भी निष्फल नहीं होते है,निष्फलता तो साधक के अविश्वास उसे से मिलता है”॰
होली के रात्रि मे माँ सरस्वती जी के चित्र का पंचोपचार पूजन कर निम्न मंत्र का ११,००० बार जाप करे,मंत्र सिद्ध हो जायेगा॰मंत्र सिद्धि के बाद सुबह सूर्योदय से पूर्व तुलसी के २-३ पत्ते शुद्ध जल मे डालकर उसपर ११ बार मंत्र उच्चारण करके जल मे ३ फूँक लगाये और जल को ग्रहण कर लीजिये साथ ही पत्ते भी चभा लीजिये येसा २१ दिन करना आवश्यक है॰
मंत्र:-
॥ ॐ नम: भगवती सरस्वती परमेश्वरी वाग-वादिनी । मम विद्यां देहि,भगवती हंस-वाहिनी समारूढ़ा । बुद्धिं देहि देहि,प्रज्ञां देहि देहि,विद्यां देहि देहि । परमेश्वरी सरस्वती स्वाहा ॥

इस साधना के बहोत सारे लाभ है,आप जो कुछ भी पढ़ोगे उसे भूल नहीं सकते,चमेली के पुष्प से शुक्रवार के दिन पूजन कर चमेली के तेल का दिया लगाये और ढाई दिन तक दिया जलते रहेना चाहिये साथ ही उस स्थान पर बैठे राहिये परंतु सफ़ेद वस्त्र पर कलश स्थापना भी आवश्यक है,येसा विधान करने पर माँ साधक को वरदान स्वरूप सभी विद्या का ज्ञान प्रदान करती है॰

Guru Paduka Stotram By Bhagawat Pada Adi Sankara

Guru Paduka Stotram By Bhagawat Pada Adi Sankara

जीवन मैं गुरु पादुका पूजन का बहुत ही महत्व है , एस साधना से गुरु साधक व् शिस्य के घर पर आते है जिस शिस्य कि सभी मनोकामना पुण्य हो जाती है ,,

अनंत संसार समुद्र तार नौकयीताभ्याम गुरुभक्तीदाभ्याम
वैराग्य साम्राज्यद पूजनाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 1
कवित्व वाराशी निशाकराभ्याम दौर्भाग्य दावाम्बुद मालीकाभ्याम
दुरी कृता नम्र विपत्तीताभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 2

नता ययोहो श्रीपतीताम समियुः कदाचीदप्याषु दरिद्र्यवर्याहा
मूकाश्च वाचस्पतीताहिताभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 3
नालिक नीकाश पदाह्रीताभ्याम ना ना विमोहादी निवारीकाभ्याम
नमत्ज्ज्नाभिष्ट ततीप्रदाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 4
नृपाली मौली व्रज रत्न कांती सरीत द्विराजत झशकन्यकाभ्याम
नृपत्वादाभ्याम नतलोकपंक्तेहे नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम ||5
पापान्धाकारार्क परम्पराभ्याम त्राप त्रयाहीन्द्र खगेश्वराभ्याम
जाड्याब्धी समशोषण वाडवाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 6
श्मादी षटक प्रदवैभवाभ्याम समाधी दान व्रत दिक्षिताभ्याम
रमाधवाहीन्ग्र स्थिरभक्तीदाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 7
स्वार्चापराणाम अखीलेष्टदाभ्याम स्वाहा सहायाक्ष धुरंधराभ्याम
स्वान्तच्छभाव प्रदपूजनाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 8
कामादिसर्प व्रज ग़ारुडाभ्याम विवेक वैराग्य निधी प्रदाभ्याम
बोधप्रदाभ्याम द्रुत मोक्षदाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 9

Using specific short sadhana on Holi

होली पर विशिष्ट लघु प्रयोग :
होली की रात्रि (जिस रात्रि होली में अग्नि लगाई जाती )साधकों और तांत्रिकों के लिए तो महत्वपूर्ण होती ही है परंतु आम व्यक्तियों के लिए भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती ,क्योंकि इस दिन व्यक्ति अपनी बहुत सी या किसी भी समस्या का निदान साधनाओं या छोटे-छोटे प्रयोगों द्वारा कर सकता है | साधनाएँ बहुत लंबी होती हैं ,हर व्यक्ति के पास इतना समय नहीं होता कि ज़्यादा समय साधनाओं में दे सके.हालाँकि इस दिन की गयी 1 माला का प्रभाव लगभग 100 माला के बराबर होता है,इसलिए साधक और तांत्रिक लोग इस मुहूर्त का बहुत बेसब्री से इंतज़ार करते हैं,जिस से कम श्रम में लंबी साधनाएँ भी सिद्ध कर सकें |यहाँ हम कुछ ऐसे ही लघु प्रयोग देने जा रहे हैं ,जिनके द्वारा सामान्य व्यक्ति भी अपने दैनिक जीवन में आने वाली कई समस्याओं का स्माधान खुद कर सकते हैं,बस ज़रूरत है,श्रद्धा और विश्वास से इन लघु प्रयोगों को करने की |
मूल या बेसिक प्रयोग :
होलिका दहन की रात्रि में ,दहन के समय घर का प्रत्येक सदस्य होलिका को शुद्ध घी भिगोकर 2 लौंग ,1 बताशा और एक पान का पत्ता (डंडी सहित) अर्पित करे ,होली की 11 परिक्रमाएँ करें, 1 सूखा नारियल भी अर्पित करें ,परिक्रमा करते समय नये अनाज (जौ या गेहूँ के दाने)भी बाली सहित होलिका अग्नि को समर्पित करते रहें,कुंकुम,गुलाल और प्रसाद आदि अर्पित करें |
यदि आप घर पर भी होलिका दहन करते हैं तो मुख्य होली में से एक जलती लकड़ी घर पर लाकर नवग्रह की लकड़ियों (जो आजकल पूजा की दुकानों पर भी मिल जाती हैं) एवं गाय के गोबर से बने उपलो (गोबर से कहीं- कहीं बल्ग़ुरियाँ भी लोग बनाकर उपलो की जगह जलाते हैं)से घर पर होली प्रज्ज्वलित करना चाहिए |और ऊपर जो प्रयोग किया है ,उसे मुख्य होली पर ना करके घर पर भी कर सकते हैं,घर का प्रत्येक सदस्य शुद्ध घी में भिगोकर 2 लौंग,1 बताशा ,और पान का एक पत्ता ,और एक सूखा नारियल अर्पित करें, और फिर 11 परिक्रमाएँ होली की घर के सभी सदस्य करें |ये मूल प्रयोग है|
प्रयोग 1.ग्रह दोष निवारण के लिए:
यदि आपको कोई ग्रह पीड़ित कर रहा है तो होलिका दहन के अगले दिन होली की थोड़ी सी राख लाकर(ठंडी होने के बाद)अपने शरीर पर पूरी तरह (तेल की तरह)मल लें,और 1 घंटे बाद गरम पानी से स्नान कर लें,आप ग्रह पीड़ा से तो मुक्त होंगे ही,साथ ही यदि आप पर किसी ने अभिचार-प्रयोग कोई किया है ,तो आप उस से भी मुक्त हो जाएँगे |
ऐसा करना संभव ना हो तो होली के बाद किसी भी सर्वार्ट सिद्धि योग जिस दिन पड़ता हो,उस दिन होली की राख को बहते जल या किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दें,आप ग्रह बाधा से मुक्त हो जाएँगे |
प्रयोग 2.शनि दोष समाप्त करने के लिए :
यदि शनि ग्रह के कारण आपको परेशानियाँ आ रही हैं ,या कार्यों में व्यवधान आ रहा है ,तो होली वाले दिन,होलिका दहन के समय काले घोड़े की नाल या शुद्ध लोहे का छल्ला बनवाकर होली की 2 परिक्रमाएँ करने के बाद होलिका अग्नि में डाल दें |दूसरे दिन होली की अग्नि शांत होने उस छल्ले को निकाल कर ले आएँ |उस छल्ले को कच्चे दूध (गाय का हो,तो बेहतर) एवं शुद्ध जल में धोकर शनिवार के दिन सायंकाल या शनि की होरा में दाहिने हाथ की मध्यमा अंगुली में शनि देव जी का मंत्र पढ़ते हुए धारण कर लें|आपकी परेशानियाँ और व्यवधान धीरे- धीरे दूर हो जाएँगे |
प्रयोग 3.आर्थिक समस्या से मुक्ति के लिए :
यदि आप किसी तरह की आर्थिक समस्या से ग्रस्त हैं,तो होली की रात्रि में चाँद निकलने के बाद अपने निवास की छत पर आ जाएँ | चंद्र देव का स्मरण कर शुद्ध घी के दीपक के साथ धूप ,अगरबत्ती आदि अर्पित कर कोई भी सफेद रंग का प्रसाद (दूध या मावे से बनी कोई मिठाई) तथा साबूदाने की खीर अर्पित करें ,और अपने निवास स्थान सुख -शांति के साथ-साथ स्थाई आर्थिक समृद्धि के लिए प्रार्थना करें |बाद में प्रसाद को बच्चों में बाँट सकते हैं |कुछ समय बाद आप स्वयं अनुभव करेंगे कि आपकी आर्थिक समस्याएँ कम होकर लाभ की स्थिति बन रही है ,और उत्तरोत्तर यह आपको ये सुख -समृद्धि के द्वार तक ले जाएगी |इस उपाय को प्रत्येक पूर्णिमा को किया जा सकता है |
प्रयोग 4.आर्थिक समस्या का स्थाई समाधान ;
इस उपाय को अगर होली की रात कर लिया जाए तो इसके प्रभाव से आप कभी भी आर्थिक समस्या में नहीं आएँगे |इसके लिए होली की रात्रि में सबसे पहले अपने घर या व्यावसायिक प्रतिष्ठान में शाम को सूर्यास्त होने के पूर्व दिया-बत्ती अवश्य करें |घर या प्रतिष्ठान की सारी लाइट जला दें| घर के पूजा स्थल के सामने खड़े होकर लक्ष्मी जी का कोई भी मंत्र 11 बार मानसिक रूप से जपें |फिर घर या प्रतिष्ठान की कोई भी कील लाकर ,जिस स्थान पर होली जलनी है ,वहाँ की मिट्टी में दबा दें |इस उपाय से आपके घर/प्रतिष्ठान में किसी भी तरह की नकारात्मक शक्ति का प्रवेश नहीं होगा और आप आर्थिक संकट में भी कभी नहीं आएँगे |
विशेष :- यदि ये करना संभव ना हो तो आप इसे इस तरह भी कर सकते हैं कि होली की रात्रि ,होली जलने के बाद आप बनने वाली थोड़ी गर्म राख घर ले आएँ,फिर घर के मुख्य द्वार के अंदर की तरफ ज़मीन पर कील रख कर उसके ऊपर होली की राख डाल दें और ऊपर से किसी चीज़ से ढक दें |दूसरें दिन कील को उपरोक्त विधि के अनुसार प्रयोग करें और राख को जल में प्रवाहित कर दें |इस से भी आपको उपरोक्तानुसार समुचित लाभ प्राप्त होगा |
प्रयोग 5.बार- बार आर्थिक हानि रोकने के लिए :
होलिका दहन की शाम को अपने मुख्य द्वार की चौखट पर दो मुखी आटे का दीपक बनाकर ,चौखट पर थोड़ा सा गुलाल छिड़क कर ,दीपक जलाकर उस पर रख दें | दीपक जलाते समय मानसिक रूप से अपनी आर्थिक हानि रोकने की प्रार्थना ईश्वर से करें|दीपक ठंडा हो जाने पर उसे जलती होलिका अग्नि में डाल दें |
प्रयोग 6.तंत्र -बाधा निवारण के लिए :
अगर आपको ऐसा लगता है कि किसी व्यक्ति ने आप पर या परिवार के किसी सदस्य पर कोई बड़ा तंत्र -प्रयोग करवाया है ,तो मूल प्रयोग को करने के साथ थोड़ी मिश्री भी होलिका अग्नि में समर्पित करें | अगले दिन होली की राख लाकर ,चाँदी के ताबीज़ में भर कर लाल या पीले धागे में ,गले में धारण करें /करवाएँ |
प्रयोग 7.रुके /फँसे धन की प्राप्ति के लिए :
यदि आपके धन को कोई व्यक्ति वापिस नहीं कर रहा है ,तो जिस दिन होलिका दहन होना है ,उस दिन होली जलने वाले स्थान पर जाकर ,उस स्थान पर अनार की लकड़ी की कलम से उस व्यक्ति का नाम लिख कर ,होलिका माता से अपने धन की वापसी की प्रार्थना करते हुए उसके नाम पर हरा गुलाल इस प्रकार छिड़क दें ,जिस से पूरा नाम गुलाल से ढक जाए,अर्थात नाम दिखाई ना दे | इस उपाय के बाद कुछ ही समय में वो आपके धन को वापिस कर देगा |
प्रयोग 8.आजीविका/नौकरी प्राप्ति के लिए :
होली की रात्रि में काले तिल के 21 दाने दाहिने हाथ में लेकर होलिका दहन के पूर्व 8 परिक्रमा करें,परिक्रमा करते समय निम्न मंत्र का मानसिक जप करते रहें---
मंत्र :--"ॐ फ्राँ फ़्रीं सः |"
जब परिक्रमा पूर्ण हो जाए ,तो काले तिलों को चाँदी के ताबीज़ में भर कर होली की रात्रि को ही गले में धारण कर लेने से नौकरी में आने वाले व्यवधान दूर होते हैं |इंटरव्यू में भी ये पहन कर जाएँ,सफलता मिलेगी |
प्रयोग 9.शत्रु -बाधा निवारण के लिए :
होली की रात्रि में काँसे की थाली में कनेर के 11पुष्प तथा गूगल की 11 गोलियाँ रख कर जलती हुई होली में नीचे दिए मंत्र को पढ़ते हुए जलती होलिका में डाल दें -------
मंत्र :-"ॐ हृीं हुम फट .|"
प्रयोग 10.शत्रुता दूर करने के लिए :
होलिका दहन की दूसरी रात्रि को 12 बजे के बाद अनार की कलम से होली की राख में शत्रु का नाम लिखें और बाएँ हाथ से मिटा दें पुनः उसी स्थान पर एक उर्ध्व मुखी त्रिकोण बनाकर उसके बीच में "हृीं" लिख कर यंत्र बनाएँ.उसके बाद वहाँ से कुछ राख लेकर वापस आ जाएँ |ये राख शत्रु के सिर पर डालते ही उसकी शत्रुता समाप्त हो जाएगी |
प्रयोग 11.धन- प्राप्ति के लिए :
आर्थिक कष्ट दूर करने के लिए होली वाले दिन कमलगट्टा की माला लेकर होली की परिक्रमा करते हुए निम्न श्री यंत्र के मंत्र को 108 बार जप करें---
मंत्र :- "ॐ श्रीं हृीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद: प्रसीद: श्रीं हृीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्ये नमः |"
मंत्र जप पूर्ण होने पर माला पहन कर होली के समीप गॉ-घृत का दीपक जलाकर घर लौट आएँ,फिर एक माला नित्य इस मंत्र की करते रहें |जल्दी ही धन-प्राप्ति के योग बनेंगे |
प्रयोग 12.स्वास्थ्य लाभ के लिए :
होलिका दहन के समय होली की 11 परिक्रमा करते हुए निम्न मंत्र का जप मन ही मन में करना चाहिए ----
मंत्र :---"देहि सौभाग्यम आरोग्यम ,देहि में पर मम सुखम |
रूपम देहि ,जयम देहि ,यशो देहि ,द्विशो जहि ||"
होली के बाद नित्य प्रातः इस मंत्र का कम से कम 11 बार अवश्य जप करें |
प्रयोग 13.तंत्र-बाधा (अभिचार-कर्म) निवारक प्रयोग :
होली की रात्रि में या किसी अन्य सिद्ध मुहूर्त में लकड़ी के बाजौट (चौकी) पर लाल वस्त्र बिछाकर ,उस पर तांबे के पात्र में जल भर कर ,पान का एक पत्ता उसमें डाल कर रख दें |तांबे के पात्र को काले तिल की ढेरी पर स्थापित पर,सरसों के तेल का दीपक जला लें |फिर निम्न मंत्र की 21 माला जप कर तांबे के पात्र में रखे जल को अभिमंत्रित कर ,पूरे घर में पान के पत्ते से छिड़काव करें |
जल की कुछ मात्रा घर का प्रत्येक सदस्य ग्रहण करे तो तंत्र-बाधा शांत होती है |
मंत्र :-"ॐ आं हृीं क्रों ऐन्ग "
काले तिलों को शनिवार के दिन बहते जल में विसर्जित कर दें |
प्रयोग 14.धन-सन्चय करने के लिए :
धन-सन्चय के लिए होली के दिन कौड़ी का पूजन का पूजन कर लाल वस्त्र में बाँध कर किसी अलमारी या संदूक में रख दें | इस दिन जो व्यक्ति कौड़ी अपने पास रखता है,उसे वर्ष भर आर्थिक अनुकूलता बनी रहती है |
जय ...... सदगुरुदेव | by Mukesh Saxena

red fort delhi is the real name of redcoat

लालकिला का का असली नाम लालकोट है----
जैसे ताजमहल का असली नाम तेजोमहालय है और क़ुतुब मीनार का असली नाम विष्णु स्तम्भ है वैसे ही यह बात भी सत्य है|
- अक्सर हमें यह पढाया जाता है कि दिल्ली का लालकिला शाहजहाँ ने बनवाया था| लेकिन यह एक सफ़ेद झूठ है
और इतिहासकारों का कहना है की वास्तव में लालकिला पृथ्वीराज ने बारहवीं शताब्दी में पूरा बनवाया था जिसका नाम “लाल कोट “था जिसे तोमर वंश के शासक ‘अनंग पाल’ ने १०६० में बनवाना शुरू किया था |महाराज अनंगपाल तोमर और कोई नहीं बल्कि महाभारत के अभिमन्यु के वंशज तथा महाराज पृथ्वीराज चौहान के नाना जी थे.
इसका प्रमाण >
तारीखे फिरोजशाही के पृष्ट संख्या 160 (ग्रन्थ ३) में लेखक लिखता है कि सन 1296 के अंत में जब अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कुश्क-ए-लाल ( लाल प्रासाद/ महल ) कि ओर बढ़ा और वहां उसने आराम किया.
>अकबरनामा और अग्निपुराण दोनों ही जगह इस बात के वर्णन हैं कि महाराज अनंगपाल ने ही एक भव्य और आलिशान दिल्ली का निर्माण करवाया था.
> शाहजहाँ से 250 वर्ष पहले ही 1398 ईस्वी में तैमूरलंग ने भी पुरानी दिल्ली का उल्लेख किया हुआ है (जो कि शाहजहाँ द्वारा बसाई बताई जाती है).
- लाल किले के एक खास महल मे वराह के मुँह वाले चार नल अभी भी लगे हुए हैं क्या शाहजहाँ सूअर के मुंह वाले नल को लगवाता ? हिन्दू ही वराह को अवतार मान कर पावन मानते है|
- किले के एक द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है क्योंकि राजपूत राजा गजो (हाथियों) के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थे जबकि इस्लाम जीवित प्राणी के मूर्ति का विरोध करता है|
- लालकिला के दीवाने खास मे केसर कुंड नाम से एक कुंड भी बना हुआ है जिसके फर्श पर हिंदुओं मे पूज्य कमल पुष्प अंकित है| साथ ही ध्यान देने योग्य बात यह है कि केसर कुंड एक हिंदू शब्दावली है जो कि हमारे राजाओ द्वारा केसर जल से भरे स्नान कुंड के लिए प्राचीन काल से ही प्रयुक्त होती रही है|
- गुंबद या मीनार का कोई अस्तित्व तक नही है लालकिला के दीवानेखास और दीवानेआम मे| दीवानेखास के ही निकट राज की न्याय तुला अंकित है \ ब्राह्मणों द्वारा उपदेशित राजपूत राजाओ की न्याय तुला चित्र से प्रेरणा लेकर न्याय करना हमारे इतिहास मे प्रसिद्द है|
- दीवाने ख़ास और दीवाने आम की मंडप शैली पूरी तरह से 984 ईस्वी के अंबर के भीतरी महल (आमेर/पुराना जयपुर) से मिलती है जो कि राजपूताना शैली मे बना हुई है|
आज भी लाल किले से कुछ ही गज की दूरी पर बने हुए देवालय हैं जिनमे से एक लाल जैन मंदिर और दूसरा गौरीशंकर मंदिर है जो कि शाहजहाँ से कई शताब्दी पहले राजपूत राजाओं के बनवाए हुए है|
- लाल किले के मुख्य द्वार के फोटो में बने हुए लाल गोले में देखिये , आपको अधिकतर ऐसी अलमारियां पुरानी शैली के हिन्दू घरो के मुख्य द्वार पर या मंदिरों में मिल जायंगी जिनपर गणेश जी विराजमान होते हैं |
- और फिर शाहजहाँ ने एक भी शिलालेख मे लाल किले का वर्णन तक नही किया है|