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Wednesday, January 6, 2016

कुंडली में राहू अच्छा नहीं है तो किसी से कोई चीज़ मुफ्त में rahu se problem

यदि आपकी कुंडली में राहू अच्छा नहीं है तो
किसी से कोई चीज़ मुफ्त में न लें क्योंकि हर मुफ्त
की चीज़ पर राहू का अधिकार होता है | लेने वाले
का राहू और खराब हो जाता है और देने वाले के सर
से राहू उतर जाता है |
राहू ग्रह का कुछ पता नहीं कि कब बदल जाए जैसे
कि आप कल कुछ काम करने वाले हैं लेकिन समय आने
पर आपका मन बदल जाए और आप कुछ और करने लगें
तो इस दुविधा में राहू का हाथ होता है |
किसी भी प्रकार की अप्रत्याशित घटना का
दावेदार राहू ही होता है |


Tuesday, October 2, 2012

We can not assess the value of living personalities?

We can not assess the value of living personalities?
WHY? " हम जीवित व्यक्तित्व का मूल्य आंक ही नही सकते |"

यह कैसे विडम्बना है की जब कोई महापुरुष जीवित होता है तब लोग उसे प्रताड़ित करते है ,उसकी आलोचना करते है |श्री कृष्ण को उनके जीवन काल में अपमान का सामना करना पड़ा ,गालिया खानी पड़ी ,एक से बढ़कर एक षड्यंत्र उनके खिलाफ रचे गए | लोगो ने कहा यह ग
्वाला चोर है ,उन पर मणि चोरी का इल्जाम लगा ,उन्हें रणछोड कह कर बुलाया गया |आज उनके जाने के इतने समय बाद हम अहसास करते है की वह एक उच्च कोटि का व्यक्तित्व था ,योगीश्वर था ,गीता जैसे ग्रन्थ का रचियता था | आज उनके जाने के इतने वर्षो बाद हम चाहते है की काश हम उनके पास रह पाते | क्योंकि हम मुर्दा पूजक है ,मुर्दा लोगो के पूजा करते है ,उनका श्राद्ध करते है |जब तक माता-पिता जीवित होते है ,हम उनकी आलोचना करते है ,उनका ख्याल नही रखते | जब वो मर जाते है तो उनका श्राद्ध करते है ,उन्हें खीर बना कर खिलाना चाहते है |

शंकराचार्य ,ईसामसीह ,मुहम्मद साहब ,सुकरात सभी के साथ उनके शिष्यों ने यही तो किया | ईसामसीह को सूली पर टांग दिया गया, सुकरात को जहर पीने के लिए बाध्य किया गया ,शंकराचार्य को उनके ही शिष्य ने कांच घोटकर पिला दिया |क्या हम इतिहास में हुई गलतियों से सीख नही ले सकते ?क्या हम वैसे शिष्य नही बन सकते जैसा गुरुदेव चाहते है ? सदगुरुदेव निखिल हमेशा कहते रहे है की शंकराचार्य के मृत्यु के समय शब्द थे की ," शिष्य बहुत घटिया शब्द है ",मैं शंकराचार्य के इस वाक्य को गलत सिद्ध करना चाहता हूँ | मैं आप लोगो के माध्यम से यह सिद्ध कर देना चाहता हूँ कि शिष्य एक उच्च कोटि का शब्द है , भाव है |

सदगुरुदेव डा. नारायण दत्त श्रीमाली जी से मैंने दीक्षा ली है |तब भी मैंने देखा है कि लोग उनकी आलोचना करते थे ,उन्हें गालिया देते थे ,उनके खिलाफ लोगो को भड़काते थे | आज वही लोग उनकी याद में रोते है और कहते है कि बहुत महान व्यक्तित्व था |आज लोगो का ऐसा व्यवहार त्रिमूर्ति गुरुदेव के प्रति देखने को मिल रहा है | वैसे ही उन्हें भला बुरा कहना ,उनकी आलोचना करना ,लोग आज भी उसी तरह से है कोई बदलाव नही आया यह देख कर बहुत दुःख होता है | 

क्या हम गुरुदेव के सिद्धाश्रम जाने के बाद ही उन्हें समझ पायेंगे ,क्या उनके साक्षात होने का ,उनके चरणों में बैठने का लाभ नही उठा सकते ? जैसे सदगुरुदेव निखिल सिद्धाश्रम चले गए है वैसे ही एक दिन जब गुरुदेव सिद्धाश्रम चले जायेंगे तब शायद हमे अहसास होगा कि हमने क्या खो दिया है | सदगुरुदेव निखिल ने बिलकुल सही कहा है कि " हम जीवित व्यक्तित्व का मूल्य आंक ही नही सकते |"

मेरे बारे में इससे श्रेष्ठ और कुछ नहीं हो सकता हैं कि मैं उस समुद्र की एक बूंद हूँ, जिस समुद्र का नाम "परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज (सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी" हैं. कुछ कागज के नोटों को कमाना, कुछ कंकड़-पत्थर को जमा कर

ना उन्होंने अपने शिष्यों को नहीं सिखाया. अपितु उन्होंने अपने शिष्यों को उत्तराधिकार में दिया : "प्रहार करने की कला - ताकि वे इस समाज में व्याप्त ढोंग और पाखण्ड पर प्रहार कर सके....... ..... और दे सके प्रेम, ताकि वे दग्ध हृदयों पर फुहार बनकर बरस सके, जलते हुए दिलों का मरहम बन सके, बिलखते हुए आंसुओं की हंसी बन सकें, छटपटाते हुए प्राणों की संजीवनी बन सकें." गुरुदेव चरणों में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ....... जो मेरे जीवन की सर्वश्रेष्ठ और अनमोल निधि हैं.... आज भी उनके चरणों की, उनके सानिध्य की कामना करता हूँ....... ....... .............. क्यूंकि जीवन का सौभाग्य यही हैं की मनुष्य इस जीवन में गुरु को प्राप्त करे.
मेरे प्रिय डॉ नारायण दत्त श्रीमाली....

Wednesday, August 25, 2010

जैसी रही भावना जिसकी

जैसी रही भावना जिसकी

एक प्रसिद्द वेश्यालय था, जो किसी मंदिर के सामने ही स्थित था. वेश्यालय में नित्य प्रति गायन-वादन-नृत्य आदि होता रहता था, जो की वह वेश्या अपने ग्राहकों की प्रसन्नता के लिए प्रस्तुत करती थी और बदले में बहुत सारा धन व कीमती उपहार उनसे प्राप्त करती थी. इस प्रकार उसकी समस्त भौतिक इच्छाएं तो पूर्ण थी, लेकिन कठोर मनुवादी व्यवस्था के अंतर्गत उसका मंदिर में प्रवेश वर्जित था और उसे वहां पूजा-पाठ आदि करने की अनुमति नहीं थी. वेश्यालय में तो उसे ग्राहकों से ही फुर्सत नहीं थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन संपन्न कर सकें. उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन संपन्न कर सकें. उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी, कि वह किसी प्रकार मंदिर में स्थापित देव मूर्ति का दर्शन कर ले और धीरे-धीरे समय के साथ उसकी यह इच्छा एक प्रकार की व्याकुलता में बदल गयी. जब मंदिर में आरती के समय बजने वाली घंटियों की आवाज उसके कानों में पड़ती, तो वह अत्यंत व्यग्र हो उठती, उसका हृदय रूदन कर उठता और भगवान् दर्शन की उत्कंठा उसके नेत्रों से बरसने लगती.

वेश्या के गायन-नृत्य आदि की स्वर लहरिया मंदिर तक भी पहुंचती थी. मंदिर का पुजारी कभी तो अत्यंत क्रोधित होता, कि उस नीच कर्मों में रत स्त्री की आवाज़ से मंदिर के वातावरण की पवित्रता में विघ्न उपस्थित हो रहा हैं और कभी वासना के वशीभूत उसी वेश्या के आगोश में पहुँच कर उसके रूप-रस का पान करने की कल्पना में डूब जाता, लेकिन मनुवादी स्समजिक मर्यादा के कारन ऐसा संभव नहीं था.

संयोगवश उस वेश्या और पुजारी, दोनों की मृत्यु एक ही समय हुयी. यमराज उस पुजारी को नरक के द्वार पर छोड़ कर वेश्या को स्वर्ग की और ले जाने लगे.

पुजारी को इस पर बहुत क्रोध आया और उसने यमराज से पूछा – “मैं जीवन भर मंदिर में देव मूर्तियों का पूजन करता रहा, फिर भी मुझे  नरक में जगह दी जा रही हैं और यह वेश्या जीवन भर पाप कर्मों में लिप्त रही, फिर भी इसे स्वर्ग ले जाया जा रहा हैं. ऐसा क्यों?”

यमराज ने उत्तर दिया – “देव मूर्तियों की पूजा करते हुए भी तुम्हारा चित्त सदा इस वेश्या में ही लगा रहा, जबकि पाप कर्मों में लिप्त रहते हुए भी इसका चित्त देव मूर्ति में ही लगा रहा. यही वजह हैं, कि इसे स्वर्ग मिल रहा हैं और तुम्हें नरक.

वस्तुतः कर्म के साथ विचारों का भी जीवन में अत्यधिक महत्त्व हैं. जब तक चित्त वेश्यागामी रहेगा (अर्थात भौतिक भोगों में लिप्त रहेगा), तब तक देव पूजन, जप, साधना आदि के उपरांत भी स्वर्ग (अर्थात देवत्व. श्रेष्ठता, सफलता, पूर्णता) की प्राप्ति संभव नहीं हैं.

किसी साधना आदि में असफलता प्राप्त होने के पीछे कारन ही यही होता हैं, कि कहीं न कहीं उसके विश्वास, श्रद्धा, समर्पण आदि में न्यूनता रहती हैं एवं चित्त साधनात्मक चिंतन से न्यून हो कर भोगेच्छाओं में लिप्त होता हैं.

अतः साधक का यह पहला कर्त्तव्य हैं, कि वह प्रतिक्षण गुरु या इष्ट चिंतन करता हुआ, मन को नियंत्रित करें, तभी श्रेष्ठता की और अग्रसर होने की क्रिया संभव हो पायेगी.

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान अप्रैल 1997 : पेज 03.