Saturday, December 31, 2011

mangal your married life and home

आपका वैवाहिक जीवन और मंगल गृह

मंगल गृह को लेकर वैवाहिक जीवन मे अनेक प्रकार कि भ्रान्तिया फ़ैलि हुइ है।वर और वधू कि कुंडली मे यदि लग्न, चतुर्थ्, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव मे मंगल हो तो कुण्डली मंगली होती है। यदि वर या वधू कि कुण्डली मे उपर दोष कथित स्थानो मे केवल एक कुण्डली मे दोष होगा तो दुसरा साथी के जीवन के जीवन का भय हो जायेगा। मन्गली दोष को लग्न / चन्द्र तथा शुक्र तीनो स्थानो से देखना चाहिये ऐसा शास्त्रो मे निर्देश है। चुंकि पाञ्च स्थानो मे मंगल के रेह्ने के कुछः दोष होता है अतः यदि तीनो स्थानो (लग्न, चन्द्र, शुक्र) से देखा जाये तो ५ * ३ = १५ स्थानो पर मंगल दोष बनता है।

लग्न चक्र मे १२ भाव ही होते है और मंगल १५ भावो (स्थानो मे दोषपूर्ण है व इसका अर्थ यह होगा कि संसार मे शायद ही ऐसी कोइ कुण्डली मिले जो मंगल दोष से रहित हो। इसी कारण "एसट्रोलोजिकल मेगझिन" के संपादक डा बि वि रमन ने लिखा है कि मांगलि दोष का हौवा न जाने कितने ऐसे विवाह् को जो सुखमय दाम्पत्य जीवन मे परिवर्तित होते, उन्हे नष्ट कर देता है।

महर्षि पाराशर के अनुसार गृहो का शुभाशुभ जानने के दो आधार है।
पेह्ला नैसर्गिक शुभ या अशुभ जैसे शनि, मंगल, राहु इत्यादि नैसर्गिक शुभ गृह है।
दुसरा आधार शुभता तथा अशुभता का भावधिपत्य द्वारा बताया गया है जैसे केन्द्र तथा त्रिकोन के स्वामि शुभ तथा छटे, आठवे, बारह्वे भाव के स्वामि अशुभ होते है। इसका स्पष्ठ अर्थ है कि परिस्थितिवश एक ही गृह चाहे नैसर्गिक या अशुभ ही भावातिपत्य कि परिस्थिति के अनुसार वह शुभ या अशुभ हो जाते है।

अतः वर या कन्या का लग्न क्या है उसके लिये मंगल ग्रह है शुभ या अशुभ यह भूलकर पांच स्थानों में से किसी एक स्थान पर मंगल को देखकर, मंगली दोष कि घोषणा कर देना ज्योतिष के मूलभूत सिद्धातों के अवहेलना तथा ज्योतिष शास्त्र को बदनाम करना है।

तात्पर्य यह कदापि नही है मंगल दाम्पत्य जीवन के लिये हानिकारक नही होता। मंगल के साथ् शनि, राहु, केतु, सूर्य भी हानिकारक होते है। अशुभ भावों के स्वामि होकर बृहस्पति, शुक्र, चन्द्र इत्यादि भी यदि सप्तम भाव मे बैठ जाये तो व भी विघटनकारी होते है। वास्तव मे सप्तम या अष्टम भाव मे अशुभ ग्रह कि स्थिति हानिकारक है और यह ज्योतिष के सिद्धान्त के अनुकूल भी है। यहि कारण है कि दक्षिण भारत के ज्योतिषि वर, कन्या कि कुण्डली मे सप्तम अष्टम 'शुद्धम' को श्रेष्ठ मानते है।

महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन के 'साधन पाद' मे लिखा है ततः विपाको जाती अयुर्भोगाः अर्थात पूर्व जन्म के कर्मो के अनुसार प्राणी कि 'ततः विपाको जाति अयुर्भोगाः' अर्थात पूर्व जन्म के कर्मो के अनुसार प्राणी कि जाति (योनि जैसे मनुष्य योनि, पशु योनि, कीट योनि आदि) आयु और सुख-दुख प्राप्त होते है। ये गर्भ से ही निर्धारित होते है ज्योतिष मे सभी आचार्यो का स्पष्टः निर्देश है कि भविष्य बताने से पेहले आयु का विचार अवश्य कर लिया जाना चाहिये। अगर यह धारणा सही है कि पाति या पत्नी का मंगल एक-दुसरे को मार देता है तो एक समस्या उत्पन्न होगी, यदि कोइ अविवाहित व्यक्ति अपनी आयु के बारे मे जानना चाहे तो क्या ज्योतिषी उस यजमान कि आयु बताने के लिये यह कहेगा कि पेहले शादि कर लो फिर अपनी पत्नी कि कुण्डली लेकर आना तो आयु बतायेंगे?

ज्योतिषियो मे एक विचित्र सिद्धान्त प्रचलित है,वह यह कि यदि वर और कन्या मे से एक कि कुण्डली मंगली है और यदि दुसरे कि भी कुण्डली मे मंगल दोष है तो मांगलि का दोष दूर हो जाता है। यह कौन सा सिद्धान्त है शायद यह बात 'विषस्य विषमौषधम' आयुर्वेद के सिद्धान्त पर गढ ली गयी है। किन्तु आयुर्वेद विज्ञान के सिद्धान्त को ज्योतिष विज्ञान मे लागु करना वैसा ही है जैसे इनजीनियरिंग के सिद्धान्तों को मेदिचाल् साइंस मे थोप्ने का प्रयास।

ज्योतिष एक महाविज्ञान है हार विज्ञान मे जैसे सिद्धान्त होते है वैसे ही ज्योतिष के भी सिद्धान्त है। ज्योतिषीय समीक्षा के समक्ष उन सिद्धान्तों कि अवहेलना कर,मनमानि करने से ज्योतिष विज्ञान नही रुढिवाद हो जायेगा। यहि लांक्षन ज्योतिष पर लग रहा है अतः प्रत्येक विद्वान् ज्योतिषी का कर्तव्य है कि वह ज्योतिष से रुढिवादी लोगों का कोपभाजन बनना पडे। केहने का तात्पर्य यह है कि वर कन्या कि कुण्डली का मेलापक परम् आवश्यक है। मेलापक के अष्टकूट का वैज्ञानिक आधार है इस से वर कन्या का शारीरिक, मानसिक, भौतिक, आध्यात्मिक, संतान संबन्धी तालमेल की समीक्षा हो जाति है। इसके अलावा ग्रहो के आधार पर कन्या के आचरन कि समीक्षा, आयु समीक्षा, संतान भाव कि समीक्षा, क्षेत्र स्फ़ुट और बीज स्फ़ुट की समीक्ष, धन और भाग्य भाव की समीक्षा भी मेलापक मे तिहित है।

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