Thursday, December 15, 2011

Pupils how to achieve perfection



शिष्य किस प्रकार से पूर्णता प्राप्त करें, किस प्रकार से अपने जीवन को श्रेष्ठता दे, और अपने में शिष्यत्व के गुण समाहित कर गुरु के योग्य बनें, सदगुरुदेव के कालजयी अमृत वचन शिष्य का अर्थ हैं, नजदीक जाना “शिष्य” का अर्थ हैं, समीपता, निकटता, नजदीकता – जो साधक जितना ही ज्यादा गुरु के समीप जा सकता हैं, गुरु के हृदय को स्पर्श कर सकता हैं, गुरु के हृदय में स्थापित हो सकता हैं, और पूर्ण समर्पण की भावना से गुरु के साथ एकाकार हो सकता हैं, वही सही अर्थों में शिष्य हैं.

विरागोपनिषद में शिष्य के छः गुण बताये हैं, जिससे शिष्य अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सकें, जो व्यक्ति या साधक जितनी ही गहराई के साथ इन गुणों को अपने में समाहित कर सकता हैं, वह उतना ही श्रेष्ठ शिष्य बन सकता हैं.

1. शिष्य का दूसरा अर्थ समर्पण हैं, जो जीतनी ही गहरे के साथ गुरु के प्रति समर्पित हैं, वह उतना ही श्रेष्ठ शिष्य हैं, समर्पण में किसी प्रकार की शर्त नहीं होती, समर्पण में बुद्धि प्रधान न होकर भावना प्रधान होती हैं. जो सभी पूर्वा ग्रहों और अपनी विशेषताओं से मुक्त होकर समर्पण करता हैं, वही सही अर्थों में शिष्य बनने का अधिकारी हो सकता हैं.

2. शिष्य की व्यक्तिगत कोई इच्छा या आकांक्षा नहीं होती, जब वह मुक्त गुरु के सामने होता हैं, तब सरल बालक की तरह ही होता हैं, गुरु के सामने तो शिष्य कच्ची मिटटी के लौन्दे की तरह होता हैं, उस समय उसका स्वयं का कोई आकर नहीं होता, ऐसी स्थिति होने पर ही वह सही अर्थों में शिष्य बनने का अधिकारी हो सकता हैं. इसीलिए शिष्य को चाहिए की वह जब भी गुरु के सामने उपस्थित हो, तब वह सारी उपाधियों और विशेषताओं को परे रखकर उपस्थित हो, ऐसा होने पर ही परस्पर पूर्ण तादात्म्य सम्भव हैं.



3. शिष्य आधारभूत रूप से भावना प्रधान होना चाहिए, तर्क प्रधान नहीं, क्योंकि तर्क ही आगे चलकर कुतर्क का रूप धारण कर लेता हैं, आपने अपने जीवन में अपने से ज्यादा उन्हें महत्त्व दिया हैं, इसीलिए गुरु को भावना से ही प्राप्त किया जा सकता हैं यदि गुरु कोई आगया देता हैं, तो उसमें क्यों और कैसे विशेषण लगते ही नहीं हैं, उनकी आगया जीवन की सर्वोपरिता हैं, और उस आज्ञा का पालन करना ही शिष्य का प्रधान और एक मात्र धर्म हैं, यदि आप में क्यों और कैसे विचार विद्यमान हैं तो आपको चाहिए की आप किसी को गुरु बनावें ही नहीं. और जब एक बार आपने किसी को गुरु बना दिया, तो कम से कम संसार में उसके सामने तो क्यों और कैसे विशेषण आने ही नहीं चाहिए, ऐसा होने पर ही पारस्परिक संयोग – सम्बन्ध और एकाकार होना सम्भव हैं.

4. शिष्य परीक्षक नहीं होता, उसे यह अधिकार नहीं हैं, कि वह गुरु की परीक्षा ले, यह कार्य तो गुरु बनाने से पहले किया जा सकता हैं, आप जिस व्यक्तित्व को गुरु बना रहे हैं, उसके बारे में भली प्रकार से जांच ले, विचार कर ले, उसके व्यक्तित्व को परख लें, और जब आप सभी तरीके से संतुष्ट हो जायें, तभी आप उसे गुरु बनावे, पर एक बार जब उसे गुरु बना दिया, तब फिर परीक्षा लेने की स्थिति नहीं आती, ना अपनी तुलना गुरु से की जा सकती हैं, ना एक गुरु की तुलना दुसरे गुरु से की जा सकती हैं. गुरु की आज्ञा में किसी प्रकार की हिचक या व्यवधान समर्पण की भावना में न्यूनता ही देता हैं.

5. शिष्य का अर्थ निकटता होता हैं, और वह जितना ही गुरु के निकट रहता हैं, उतना ही प्राप्त कर सकता हैं, आप अपने शरीर से गुरु के चरणों में उपस्थित रह सकते हैं. यदि सम्भव हो तो साल में तिन या चार बार स्वयं उनके चरणों में जाकर बैठे, क्योंकि गुरु परिवार का ही एक अंश होता हैं, परिवार का मुखिया होता हैं, अतः समय-समय पर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना, उससे कुछ प्राप्त करना, शिष्य का पहला धर्म हैं, यदि आप गुरु के पास जायेंगे ही नहीं, तो उनसे कुछ प्राप्त ही किस प्रकार से कर सकेंगे? गुरु से बराबर सम्बन्ध बनाये रखना और गुरु के साथ अपने को एकाकार कर लेना ही शिष्यता हैं.

6. गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि हैं, जब आप शिष्य हैं तो यह आपका धर्म हैं, कि आप गुरु की आज्ञा का पालन करें गुरु की आज्ञा में कोई ना कोई विशेषता अवश्य छिपी रहती हैं. जितनी क्षमता और शक्ति के द्वारा. जितना ही जल्दी सम्भव हो सकें, गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्यता का धर्म हैं.

विरागोपनिषद के अनुसार जो शिष्य इन गुणों को अपने स्वयं के जीवन में आत्मसात करता हैं, वही सही अर्थों में शिष्य बनने का अधिकारी होता हैं, इसलिए आप अपने स्वयं में झांक कर देखे कि मैं जो गुरु से उम्मीदें लगाये बैठा हूँ, क्या उससे पूर्व मैं सही अर्थों में शिष्य हूँ, या नहीं, क्या मैं शिष्य की कसौटी पर खरा हूँ, या कि आप स्वयं ही इस कसौटी पर अधूरे हैं, तो आप कैसे उम्मीद लगा सकते हैं, कि आपकी इच्छाओं की पूर्ति गुरु कर देंगे. गुरु और शिष्य के सम्बन्ध शीशे की तरह नाजुक और साफ़ होते हैं, थोडी सी ठसक लग जाने से जिस प्रकार शीशे पर दरार आ जाती हैं, उसी प्रकार गुरु और शिष्य के बीच संदेह मतिभ्रम होने पर दरार आ जाती हैं, और वह दरार आगे चलकर खाई का रूप धारण कर लेती हैं, इसलिए शिष्य को चाहिए, कि वह निरंतर अपने मन का विश्लेषण करता रहे, निरंतर यह सोचता रहे कि मैं शिष्य कि कसौटी पर खरा हूँ, या नहीं? क्या मैं शाश्त्रों में वर्णित शिष्य के गुणों को अपने आप में समाहित कर लिया हैं या नहीं? क्या मैं सही अर्थों में शिष्य बन सका हूँ या नहीं? ऐसा विश्लेषण करते रहने से उसका हृदय साफ़ होता रहता हैं, और इन सम्बन्धों में दरार नहीं आ पाती हैं. सम्पूर्ण समर्पण तथा अपने को अंहकार रहित बनाये रखना ही आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त करने का प्रथम पद हैं, यह शक्ति साधना गुरु कृपा से ही प्राप्त हो सकती हैं.


सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.

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