Tuesday, September 27, 2011

Yakshini Sadhna

Yakshini Sadhna
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सौंदर्य क्या है ?????? उत्तर कठिन है……. क्यूंकी ये तो हम पर ही निर्भर करता है की हमारे लिए सौंदर्य का अर्थ क्या है या सुंदरता की बात होते ही हमारा चिंतन किस तरफ जाता है . सामान्य व्यक्ति से प्रथक एक साधक के विचार से सुंदरता का अर्थ ही पूर्णता होता है, तभी तो कहा गया है की…..
सत्यम शिवम सुंदरम.
अर्थात सत्य ही शिव है( जीवन की विषम परिस्थितियों के गरल को पीकर भी परम शांति का अनुभव करता है) और ऐसा अनुभव जो की आपका जीवन ही बन जाता है ,वो सौंदर्य से परिपूर्ण हो ही जाता है .
यहा सौंदर्य का अर्थ विचारोंत्तेजक वा तथाकथित कामुकता तो कदापि नही हो सकता ना.सद्गुरुदेव हमेशा कहते थे की यौवन की पुनर्स्थापना के लिए और जीवन को आनंद से भरने के लिए सौंदर्य की साधना साधक को करनी ही चाहिए.और सौंदर्य की जब भी बात चलती है तो परिभाषित करने के लिए नारी को उपमेय रूप मे लेना ही पड़ेगा, विधाता की बनाई हुई पूर्ण उर्जा से स्पंदित वो कृति भला किसका मन अपनी और आकर्षित नही करती है. और पूर्ण सौंदर्य को बताने के लिए यक्षिणी या अप्सरा से भला बेहतर क्या हो सकता है.
हममे से बहुत से साधक होंगे ही जिन्होने पत्रिका मे या किताबों मे पढ़कर यक्षिणी या अप्सरा साधना की होगी, पर असफल साधकों की संख्या सफल साधकों से कही ज़्यादा और बहुत ज़्यादा ही होगी…… कहिए क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ?????
क्या जो विधि दी गयी है वो ग़लत है , नही ऐसा नही है , वास्तविकता इससे कही भिन्न है क्यूंकी विधि ग़लत नही होती बल्कि जो भाव-भूमि हमारी इस साधना के लिए होनी चाहिए, हम उस भाव को ही आत्म-सात ही नही कर पाते. क्या आपने कभी ध्यान दिया है की एक क्रिया या साधना को बताने के लिए उसके बारे मे इतना ज़्यादा विस्तार से पत्रिका मे क्यूँ लिखा जाता है???? सिर्फ़ इसलिए की मानसिक वा आत्मिक रूप से भी आप अपने आपको तत्पर कर सके उस साधना को करने के लिए और उस महत्व को समझ सके (जिस महत्व की तरफ वो साधना रहस्य इंगित करता है).
मैं ये बात इतने अधिकार से इसलिए कह रहा हूँ क्यूंकी मैने स्वयं होलिका यक्षिणी जैसी साधना मे पहली बार मे ही सफलता प्राप्त की थी ,और मेरा परिवार तथा मित्र इस बात के साक्ष्ीभूत रहे हैं .तीन वर्षों तक मैने उस सफलता का उपभोग भी किया , ये बात मैं आत्म-प्रवंचना के लिए नही कह रहा हूँ , बल्कि अपने अनुभव को अपने भाइयों के मध्य रखना अपना दायित्व समझता हूँ . मुझसे कई करोड गुना बेहतर मेरे कई गुरु भाई हैं, जिन्हे सफलता मिली पर वो ना जाने क्यूँ उन अनुभूतियों को विस्तारित करने मे हिचकते हैं(शायद उनके अनुसार उनकी मेहनत उनके खुद के प्रयोग के लिए है).
खैर अपना अपना दृष्टिकोण है …… शिवरात्रि से होली तक का समय इन साधनाओं के लिए कही ज़्यादा अनुकूल रहता है .गुरु धाम , कामरूप कामाख्या, किसी नदी का किनारा,हृषिकेश, मनाली, कुल्लू, पचमढ़ी और अन्य पर्वतीय लेकिन शांत स्थान इसके लिए ज़्यादा उचित हैं. क्यूंकी प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता इन वर्गों को अति शीघ्र आकर्षित कर लेती हैं और अनुभूतियों की तीव्रता भी इन स्थानो पर कही अधिक होती है.
शिव , कुबेर , भैरव की साधनाएँ इन क्रियाँ मे सहायक होती हैं. और एक बात आवश्या समझ लेनी चाहिए की उच्च स्तरिय तन्त्र साधनाओं मे प्रवेश पाने के लिए , उनमे सफलता के लिए ये साधनाएँ अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. अब प्रश्न है की ऐसा क्यूँ?????
तो मेरे आत्मियों षट्कर्मों से उपर साधनाओं का एक ऐसा संसार भी है जहा असंभव कुछ भी नही ,पर वहाँ पहुचने के लिए एक साधक को तन्त्र के पाँच पीठों को पार करना पड़ता है.
अरण्य पीठ
शून्य पीठ
शमशान पीठ
शव पीठ
श्यामा पीठ
इन पीठों की साधना के बाद ही आप उच्च स्तरिया साधंाओं मे प्रवेश पाने के अधिकारी होते हो. अब आप पूछेंगे की यक्षिणी, अप्सरा, योगिनी साधनाओं का क्या महत्व है इसमे?? तो मैं आपको बता दूं की जीवन के चार पुरुषार्थों …
धर्म, अर्थ , काम ,मोक्ष मे से मोक्ष के रहस्य का पाने का अधिकारी वही हो सकता है जिसने उसके पहले के तीनों पुरुषार्थों का भली प्रकार से उपार्जन वा पालन किया हो. मोक्ष भी तभी मिलता है जब आप काम भाव के सत्य को अपने जीवन मे व्यवस्थित रूप से उतार लेते हो. श्यामा पीठ के पहले के चार पीठ 8 पाशों मे से अन्य 7 पाशों से भले ही आपको मुक्त कर दे , जैसे की भय, जुगुपसा, मोह ,घृणा आदि को . पर काम भाव रूपी पाश तथा अन्य पाश के बंधन से तभी मुक्त हो सकते हैं जब श्यामा पीठ की साधना सफलता से कर ली जाए. क्यूंकी एकांत मे स्त्री साहचर्या भय, मोह , लज्जा और वासना का सृजन करता ही है. और हम सभी जानते हैं की काम भाव को प्रेम या स्नेह मे परिवर्तित कर हम वासना के दलदल से ना सिर्फ़ निकल जाते हैं बल्कि कमल की तरह जीवन की अन्य विसंगतियों से भी निरलप्त हो जाते हैं.
और ये सौंदर्य भाव की साधना आपकी वही अग्नि परीक्षा होती है, जिनके साधना काल मे साधक के भीतर के काम भाव का मंथन होता ही है और मंथन के फल स्वरूप वासना या उत्तेजना का विष निकलता है , अब यदि साधक वहाँ रुक गया तो वो कभी सफल नही हो पाता ,पर यदि वो उसके आयेज निकल गया तो ब्रह्मांड का अद्भुत सौंदर्य ना सिर्फ़ उसके जीवन मे समा जाता है बल्कि दिव्य साधनाओं का मार्ग भी उसके लिए खुल जाता है. और ये तभी होता है जब हम पूर्णा वीर भाव से इस वाम मार्ग की साधना करें. वाम मार्ग का मतलब तन्त्र मे शक्ति प्राप्ति का आनंद प्राप्ति का मार्ग है ना की विपरीत व्यवहार करने का मार्ग, और वीर भाव का मतलब अकड़ना या आँखे फाड़ना नही है बल्कि जो भी होगा, बगैर विचलित, भयभीत हुए बिना मात्र दृष्टा बन कर उन चुनौतियों का सामने दृढ़ भाव से सिंहवत खड़े होकर सफलता पा लेना ही वीर भाव है. सौंदर्य की इन अदभूत साधना मे आप अन्य चारों पीठों को लाँघ कर सीधे श्यामा साधना को ही सम्पन कर लेते हैं.
प्रत्येक साधना मे प्रत्यक्षीकरण हेतु एक अलग ही क्रिया होती है. किसी साधना का लाभ उठना और उस शक्ति को प्रातायक्ष ही कर लेना दो अलग अलग बात हैं. इस लिए प्रत्यक्षीकरण की चुनौती को स्वीकारने के लिए प्रत्यक्षीकरण यंत्र या गुटिका तथा उसे संबंधित मंत्र का ज्ञान ज़रूरी है.
इसी प्रकार प्रत्येक अप्सरा और यक्षिणी का कीलन विधान भी होता है .जिसमे उनके यंत्र को बीजाक्षरों के द्वारा कीलित किया जाता है जिससे वे आपको सफलता दें एके लिए बाध्य ही हो जाती हैं. आप भी इन सूत्रों को अपनाएँ और सौंदर्य युक्त जीवन का आनंद ले तथा साधक जीवन को सफल करें यही मेरी सद्गुरुदेव से प्रार्थना है.

Sabar mantra sulemani apshara shadhna

सुलेमानी अप्सरा साधना -- लाल परी
बहुत स्टोरी सुनी होगी बचपन में परी कहानियों की मगर कभी सोचा है अगर उस से मुलाकात हो जाये तो क्या रोमाच होगा !बहुत ही लाजबाब साधनाए है जो आप को उस तत्व को समझने का मोका देती है !संसार में हमेशा इन्सान सचे प्रेम के लिए भटका है !मगर उसे सिवाए छल के कुश नहीं मिलता !घर का महोल भी कलेश के कारन और जरूरी वस्तुयों की कमी के कारन खराब होता है तो मन इस संसार से उचाटित होना सोभाविक है !तो इन्सान देव शरण का आसरा लेता है मगर किसी भी तत्व को जानने और समझने के लिए आप की अवश्क्ताओ की पूर्ति होनी जरुरी है और बिना इस के आप देव तत्व में भी मन नहीं लगा सकते फिर भी जही कहता हू के कुश वदलाव तो जरुर होना चाहिए जीवन में जो आपको जीने की कला सिखादे और आप के जीवन में आ रही कमी को दूर कर दे और सही साथी की तरह सलाह दे और आपको आने वाले समय से आगाह करे आज मुझे ग्रुप में एक सवाल पूछा गया क्या साबर साधनायो में अप्सरा साधना है !तो उसी सवाल से प्रेरित हो ये साधना दे रहा हू और समय समय ऐसी साधनाए देता रहुगा !
इस साधना के लाभ -
ये जीवन में आने वाली धन की कमी को दूर करती है और किसी ना किसी माद्यम से लोटरी अदि से आकस्मिक धन की प्राप्ति कराती है !इस से घर का महोल सुख मय हो जाता है !कई दोस्तों ने पूछा के पत्नी बहुत झगडालू है कलेश बना रहता है !ये साधना आपकी पत्नी के सुभाह को एक दम बदल देगी और वोह आपको समझने लगेगी क्यों के इन साधनायो का गुप्त रहस्य जही है के अप्सरा तत्व आपकी पत्नी में समा वेश कर जाता है और उस में प्रेम लजा और समर्पण जैसे गुण पैदा कर देता है !और आपके घर के महोल को एक नये शांति और उर्जा से भर देती है क्यों के अप्सरा में लक्ष्मी और जल तत्व प्रधान होता है ये सोंदर्य के साथ साथ शांति का भी पर्तीक है !
यह पूरी तरह अजमाई हुई साधना है और इस में पर्त्क्शिकर्ण होता है मतलव आप अपनी इन आँखों से इसे देख सकते हो !एक वार अलख मुनि जी जो हमारे गुरु भाई सन्यासी है य़ा गये और पूछा के कोई ऐसी साधना है जो जल्द ही पर्तक्ष हो तो उसे जही साधना बता दी !वोह साधना के मामले में बहुत हठी है !जाते ही साधना शुरू कर दी !तीसरे दिन अप्सरा य़ा गई और ब्लैक बोर्ड लगा के कुश लिखने लगी शायद लोटरी का नम्बर अदि होगा तो अलख मुनि जी सोचने लगे इसे कहू क्या पता नहीं उनके मन में क्या आया उसे व्ही शोड हुस्न चन्द जी के मंदिर की और आ गये जो वहा से १८ किलोमीटर है आ के कहने लगे वोह य़ा गई है उसे क्या कहना है !तो हम सभी हस पड़े हुस्न चन्द जी कहने लगे वोह अब तक तो चली गई होगी वोह क्या वहाँ बैठी होगी तुम कुश भी कह देते !तो वोह अजीब तरह देखते रहे कहा मुझसे तो गलती हो गई अब दुयारा करनी पड़ेगी कहने का तात्पर्य है के कई वार प्र्ताक्षिकर्ण के वक़्त साधक सब भूल जाता है उसे ये भी नहीं पता चलता के मैं इसे क्या कहू !आप बिना संकोच अपने दिल की बात उसे कह सकते हो अगर फिर भी ऐसी स्थिति य़ा जाये तो आप उसे अपनी प्रेमका जा दोस्त बनने को कह सकते हो इस पे वोह पर्सन होकर आपको बहुत कुश पर्दान कर देती है जिस की आपको आवश्कता होती है धन अदि !
विधि --इस साधना को किसी भी नोचंदे जुमेरात (संक्राति के बाद पर्थम शुक्रवार )को शुरू करे !
२. चमेली के तेल का दिया लगा दे लाल सिंगरफ ले आये उस से अपने चारो और एक घेरा लगा ले जब साधना में बैठे तो जब तक जप पूर्ण ना हो उस घेरे से बाहर ना हो इस बात का खास ख्याल रखे !
चमेली जा गुलाब के पुष्पों को पास रखे जब हाजर हो मंत्र पड़ते हुए पुष्पों की वर्षा करते हुए उसका स्वागत करे और वोह आप के पास आकार बैठ जाये तो बिचलित ना हो बस मन्त्र जप करते रहे जब आपकी साधना पूर्ण हो जाये तभी बात करे और तब तक आपको कुश भी कहे बोले ना जप पूरा होते ही वोह चली जाएगी और ऐसा हर दिन होगा इस बात का ख्याल रखे जब अंतला दिन हो तब वोह बेवस हो आपको कुश मांगने के लिए कहे तो आप उसे कहे तुम मेरी प्रेमिका बन जायो जा जो आपकी ईशा हो कह सकते हो !
३. भोग के लिए फल व मिठाई अदि पास रखे !
४ .एक पानी का पात्र और लोवान का धूप अदि जलाये !
५ हिना जा चमेली का इतर भी पास रखे थोरी रूई भी जब आपके पास बैठे तो उसे इतर का फोया दे मतलव थोरी रूई पर इतर लगाकर भेंट करे !
६.माला लाल हकीक की ले !
७. वस्त्र सफ़ेद लुंगी जा कुरता पजामा भी पहन सकते हो !
८.दिशा पशिम की और मुख कर साधना करे !
९. इस के लिए एकात कक्ष होना अनवार्य है !
१०.इसमें आसान जैसे नवाज पड़ते है उसी परकार घुटनों के बल बैठ सकते हो अगर असुबिधा हो तो आप जैसे बैठ सकते हो बैठ जाये मगर ज्यादा हिले जुले ना !
११.कमरे में इतर जा सेंट अदि छिरक दे !अगर वती भी लगा सकते हो अगर लोवान का धूप प्राप्त ना हो !
सर्व पर्थम गुरु पूजन कर और साधना के लिए आज्ञा मांगे और फिर गणेश का पूजन करे और सफलता के लिए प्रार्थना करे !
फिर निम्न मंत्र की २१ माला जप करे और जप से पहले आसान पर बैठ के सिंग्रिफ से अपने चारो और रेखा खीच ले और दूध का बना प्रशाद बर्फी जा पेडे अदि भी पास रखे और उपर जो जो समान बताया है सभी रखे २१ माला से पहले आप उठे ना !सहमने किसी बजोट रख उस पे चमेली के तेल का दिया अदि लगा दे और लोवान का धूप लगा दे फिर मन्त्र जप शुरू करे !ये साधना २१ दिन करनी है!
साबर मंत्र -- बिस्मिला सुलेमान लाल परी हाथ पे धरी खावे चुरी निलावे कुञ्ज हरी!!
जय गुरुदेव !

Monday, September 19, 2011

Success in Sadhna

Success in Sadhna

The base of the Life is the Success…Our main in life is to cover all the problems & the hurdles of our life and to get Happiness & the Prosperity…This topic is very much important as well as Spiritualistic….In our life – cycle each of us had tried any type of the meditation or other means of devotion viz. (Tantra, Mantra) in order to gain either the desires or to cover our Bad Luck….But, does each of them were successful????? Do any of us get success (which is known as SIDDHI) in fulfilling the different aspects of the Sabar, Islamic, Jain, Saumya, Tivra, Lakshmi, and Aghor Mantra’s as per our capabilities? Whenever we asks our inner soul for the success of such devotions the answer is NO….because till time no one has reached the level of such devotion…Isn’t it??? Perhaps we have not followed the basics for the same…
But, don’t give up…Once again you recall all your basics and try to implement them…The Sadgurudev has opened all the practices in front of us…but no one has gave attention towards them…I have not only accepted those basics but have got success too from them in each and every type of devotion and You too can enjoy the taste of Success….
First of all…you need to conduct the process of Confession…For this, note down all the mistakes, Misunderstandings & the sins you have done and place the paper under the “Guru Yantra” and conduct 3 rounds of (1 round – 108 times of Mala) “Sarv Dosh Nivarak Mantra” for 11 days on regular basis…With this, you need to conduct 16 rounds of Guru Mantra mandatory…
Place 1 Siddhi Phal on the Black Sesame Seeds bunch and in front of that conduct 3 rounds of “VAM” Mantra…This process removes our Materialistic & Devotional Lacks…After the devotional process, drain all the things along with this Siddhi Phal in the river…
Demotivation is the biggest rival of a Devotee, hence to get rid over from the Demotivation is the first step to get success...
The exposure of your devotional work during your devotion period or after that can reduce the chances of your success and that’s why you need to explain all your experience in front of Gurudev and gaining the Sadhna Mantra from the divine voice of the Gurudev will lead you both the success as well as the accurate and correct version of the same…
The Guru Kavach keeps you safe from the problems & the hurdles which can come across during the Devotion period…
For success in the devotions – use Tantra Safalya Mantra…
For getting success in the Tantra – Before and after the Basic (Mool) Mantra conductance, make transparent the 5 Safalya Mudra by enchanting the “Mool Mantra”…
Before and after every devotion, The Guru Mala should be conducted and the process (Poojan, Viniyog & Dhyaan) which we conduct before Devotion should be conducted before and after the Mool Mantra Jaap on mandatory basis…
By conducting the Mool Mantra and the Agninyaas – foundation of the Mantra should be done in all the 24 centres of the body…After this, need to start the Prayashchit Nyaas and the process which helps in covering the mistakes held in “Mantra Sadhna”…Following the process of Deepni Kriya we should conduct the process through which the particular Mantra will give the favourable result to us…All the 3 processes can be conducted only through the Mool Mantra…After this only enchanting of the Mool Mantra can be conducted in a specific numbers…
To request with the Sadgurudev for the success in the devotion and the Sarv Sadhna Safalya Diksha is one of the most amazing solution for getting success. Here all the point of views which I have discussed are the hidden keys which are not approachable in an easy manner but this is our Good Luck that Yug Purodha Sadgurudev had given all these learnings in a very easy way…
All you need to just accept the processes in the devotion and the Success will run behind you…..



Saadhna me safalta

Dear all,
Jai Gurudev,

Jeevan ka aadhaar hi safalta hai , Bhautik jeevan me aane wali baadhon ko samapt kar jeevan me sukh aur aanand ki prapti hi to hamara dhyeya hai. .ye vishay behad jaruri bhi hai aur aatmik bhi. ham sabhi ne kabhi na kabhi apne jeevan me kuchh pane ke liye ya durbhagya ko samapt karne ke liye Saadhna-yog (Tantra ,Mantra ) ka avashya prayog kiya hoga .par kya sabhi ko safalta mil payee????? kya alag alag mat jaise ki sabar, islamik, jain,saumya,tivra,lakshmi,aghor mantron ko apni apni samarthyata ke anusaar karte huye ham us safalta ke phal jise ki Siddhi Kahte hain ........ ham prapt kar paye!!!!!!!!!!!! apne dil par jab ham haath rakhte hain to uttar yahi aata hai ki ..nahi us star tak nahi pahuch paye... hai na!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!! !!!!!! SHayad aapne in sootron ko kabhi apnaya nahi hai.....
par koi baat nahi nirasha ko alag rakh kar ek baar in sootron ko bhi apna kar dekhiye.Sadgurudev ne to sabhi vidhaan hamare saamne khol kar rakh diya hai ,par hamne hi kabhi dhyan nahi diya hai. maine inhe apnaya hai aur safalta paayee hai.sabhi prakar ki sadhnaon me... aur aap bhi is swad ko chakh sakte hain .
1.sabse pahle prayashchit ki kriya karni chahiye. iske liye ek kagaj par apni bhoolon ko,galtiyon ko, apradh ko likh kar Guruyantra ke neeche rakh dijiye aur Sarv dosh nivarak mantra ka jap 11 din tak nitya 3 mala karen.is dauran 16 mala guru mantra bhi hona avashayak hai.
2. Ek Siddhi phal ko kale tilon ki dheri par sthapit kar us ke saamne "Vam" mantra ki 3 mala karen ye hamare sadhnatmak aur bhaoutik doshon ko samapt karta hi hai sadhna ke baad is phal ko bhi anya samagri ke sath visharjit kar den.

3.Nirasha saadhak ki sabse badi dushman hai. atah nirasha bhav ko tyagna hi safalta ki pahli seedhi hoti hai..

4. Sadhna kaal me aur uske baad bhi apni KI ja rahi saadhna ka prachar karna aapki safata prapti ki kaamna ko khatm kar sakti hai,is liye apne anubhav Guru ke charnon me hi nivedit karna chahiye aur Saadhna Mantra Guru mukh se lene se aapko uska uchcharan aur safalta ka vardaan dono hi prapt hote hain.

5. Guru kavach Sadhna kaal me aane wale vighnon ko aapse door rakhta hai aur aapdaon se kavchit bhi kar deta hai.

6.sadhnaon me safalta ke liye Tantra safalya mantra ka prayog karen.

7.Tantra me safalta ke liye Mool mantra jap ke pahle aur baad me 5 safalya mudraon ko mool mantra bolte huye pradarshit karna chahiye.

8.Sadhna ke pahle aur baad me Guru mantra ki mala honi hi chahiye tatha jo poojan ham sadhna ke pahle karte hain us poojan,viniyog,dhyan ko mool mantrajap ke pahle aur baad me jarur hi karna chahiye.

9.Mool mantra ke dwara, Angibhoot nyas kar Sharir ke 24 kendron me mantra ka sthapan kar lena chahiye ,iske baad Prayashchit nyas kar mantra sadhna me hone wali galtiyon ke prabhav ko door karne ki prakriya karna chahiye. iske baad Deepni kriya kar us mantra ko apne liye prabhav kari banana chahiye.ye teeno hi kriyaen mool mantra ke dwara hi hoti hain. iske baad hi mool mantra ka nirdisht sankhya me jap karna chahiye.
10.Sadgurudev se sadhna me safalta ka nivedan karna aur Sarv-Sadhna safalya diksha ek adviytiya upaay hai safalta prapti ke liye. yaha maine jo bhi vivechan diya hai ye gupt kunjiya hi hain jo sahaj prapt nahi hoti par hamara saubhagya hai ki Yug-Purodha Sadgurudev ne hame sahaj hi diya hua hai.
Aap in kriyaon ko apni sadhna me apna kar to dekhiye ,safalta daudti huyee chali aayegi aapki aur.....
Aapka hi


आइये अब एक एक point को विस्तार से देखते हैं। निम्न जानकारी मेरे ज्ञान (जो की बहुत कम है) के अनुसार है, वरिष्ठ भाइयों से अनुरोध है की किसी भी प्रकार की गलती दिखने पर क्षमा करें और तत्काल मार्गदर्शन करें।

1. अपने सारे ज्ञात अज्ञात पाप, दोष, गलतियाँ, एक कागज पर लिख कर गुरु यंत्र के नीचे रख दें, गुरुदेव से प्रार्थना करें की उनके चरणों मे आप अपने जीवन के सारे पाप और दोष समर्पित कर रहे हैं और हमारे प्राणाधार इन सभी भूलों को क्षमा कर हमे दोषमुक्त कर साधना मे सफलता प्रदान करें। सर्व दोष निवारक मंत्र का जप 3 माला प्रति दिन के हिसाब से 11 दिन तक करना है, इसके साथ 16 माला गुरुमंत्र भी प्रतिदिन होना आवश्यक है। सर्व दोष निवारक मंत्र इस प्रकार है....

ॐ तत्सवितुर्वरेणियम सर्व दोष पापान निवृत्तय धियों योनः प्रचोदयात


2. किसी भी साधना से पूर्व सिद्धि फल को काले तिल की ढेरी पर स्थापित करके " वम् " मंत्र की 3 मालाएँ करें। फिर मूल साधना करें। और साधना समाप्ती पर सिद्धि फल को भी अन्य सामग्री के साथ विसर्जित कर दें। सिद्धि फल आसानी से प्राप्त हो जाता है। इस छोटे से फल के विषय मे क्या कहें, इसका तो नाम ही है "सिद्धि" फल

3. जैसा की आदरणीय भाई ने लिखा है, निराशा को त्यागना ही सफलता की पहली सीढ़ी है। सफलता या असफलता का चिंतन छोड़ के मात्र साधानमय बने रहना ही आपको सफलता की ओर ले जाएगा। एक बार सफलता न मिले तो बार बार प्रयास करें, अपनी साधना, मंत्र और विधि पे पूर्ण विश्वास रखें।

4. साधना काल मे या उसके बाद भी अपनी की जा रही साधना की चर्चा करना उचित नहीं है। परवीन जी का एक शेर है की....
राह मे ही मंज़िलों का जिक्र मत छेड़ो परवीन
मंज़िलों ने सुन लिया तो और दूर हो जाएंगी

साधना मंत्र यदि गुरुमुख से प्राप्त हो तो सफलता का वरदान तो अपने आप प्राप्त हो जाता है, साथ ही साथ उसके उतार चढ़ाव (rythm) और लय का भी ज्ञान हो जाता है। आपने CDs मे देखा होगा सदगुरुदेव सदेव साधना मंत्र स्वयं 3 बार बोल कर देते थे। अब यदि ये किसी प्रकार संभव ना हो पाये तो गुरुदेव के प्राण प्रतिष्ठित चित्र के सामने मूल मंत्र को किसी कागज पर लिख के रख लें, सदगुरुदेव से प्रार्थना करें की वो आपको मंत्र एवं साधना मे सफलता प्रदान करें और फिर उस कागज को उठाकर उसी प्रकार मंत्र पढें जैसे की स्वयं सदगुरुदेव आपको ये मंत्र दे रहे हैं।

5. गुरु कवच का पाठ तो अति आवश्यक है किसी भी प्रकार की साधना मे। इस विषय मे विस्तार से एक article तंत्र कौमुदी के तीसरे अंक "गुह्य एवं अज्ञात तंत्र महाविशेषांक" मे दिया गया है। साधना से पूर्व और हो सके तो साधना के बाद भी इसका मात्र एक बार पाठ करने से सारी विपदाएँ दूर हो जाती हैं।

6. तंत्र साधना मे सफलता के लिए तंत्र साफल्य मंत्र का प्रयोग करें, यह मंत्र आपको "तंत्र रहस्य" नामक CD मे स्वयं सदगुरुदेव की ओजस्वी वाणी मे मिल जाएगा।

7. तंत्र साधना मे सफलता के लिए साधना से पूर्व और साधना के बाद मूल मंत्र का उच्चारण करते हुए 5 साफल्य मुद्राएँ प्रदर्शित करनी चाहिए। एक एक मुद्रा को आप 10 सेकंड से लेकर 2 मिनट तक भी प्रदर्शित करें तो पर्याप्त हैं, जैसी आपकी अनुकूलता हो। ये 5 साफल्य मुद्राएँ हैं.... दंड, मत्स्य, शंख, अभय और हृदय। इन पांचों मुद्राओं के प्रदर्शन का विवरण भी उपरोक्त बताई गयी CD से ही मिल जाएगा। हमारे तीनों प्रिय भाई दिन रात की मेहनत से इस प्रयास मे हैं की जल्दी ही इस प्रकार की मुद्राओं एवं अन्य विधियों के photos/videos जल्द से जल्द website पर लगाए जाएँ जिससे की सभी गुरु भाई बहन लाभ ले सकें। मुद्राओं का भला क्या महत्व है ये समझाने के लिए अलग से एक विस्तारपूर्ण post ब्लॉग पे पोस्ट की गयी थी, जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं।

8. साधना से पूर्व और बाद मे गुरुमंत्र की एक माला होना ही चाहिए, जो पूजन, विनियोग एवं ध्यान साधना से पहले किया जाता है वह मूल मंत्र के जाप के बाद भी करना चाहिए।

9. न्यास का महत्व क्या है इस विषय मे एक blog post अलग से दी गयी है, यहाँ कुछ विशिष्ट प्रकार के न्यास का जिक्र किया गया है जो की सर्वथा गोपनीय ही रखा गया है। पत्रिका के पुराने अंक मे से मुझे ये प्रक्रिया मिली थी जो की आपके समक्ष जरा विस्तार से समझाने का प्रयास कर रहा हूँ।

अंगीभूत न्यास :

साधना मे केवल मंत्र जप से ही काम नहीं चलता, उसके लिए "अंगीभूत न्यास" आवश्यक है, यह गोपनीय रहस्य है, और गुरु भी आसानी से इन रहस्यों को शिष्य के सामने व्यक्त नहीं करते। प्रत्येक साधना मे मूल मंत्र होता है, और उस मूल मंत्र के माध्यम से अपने शरीर मे जिस भी देवी देवता की साधना की जाती है, उसके स्वरूप को समाहित किया जाता है, पूरे शरीर मे 24 केंद्र बिन्दु हैं, इनमे प्रत्येक केंद्र बिन्दु को स्पष्ट करते हुए मूल मंत्र का उच्चारण करने से वह साधनात्मक इष्ट साधक के शरीर मे समाहित होता है, और निश्चय ही सफलता प्रदान करता है, ये 24 केंद्र बिन्दु हैं ....

2 चरण, 2 पैर, 2 घुटने, 2 जंघाएँ, 1 नाभी, 1 उदर, 1 हृदयस्थल, 2 वक्ष, 2 भुजाएँ, 1 ग्रीवा, 1 मुख, 2 नासिका पुट, 2 नेत्र, 2 कर्ण, 1 सिर

याद रखें की यह विलोम रुपेन क्रम है अर्थात नीचे से ऊपर की तरफ जाना है, मूल मंत्र का जाप करते हुए अपने हाथों की उँगलियों से शरीर मे ऊपर बताए गए 24 केन्द्रों को छूएँ। एक चरण को छू कर एक बार मंत्र पढ़ें, फिर दूसरे चरण को छू कर दूसरी बार मंत्र पढ़ें इस प्रकार शरीर के 24 केन्द्रों मे संबन्धित देवी/देवता को शरीर मे समाहित करें।

प्रायश्चित न्यास :

जैसा की नाम ही है, यह प्रायश्चित की क्रिया है, यह न्यास भी एक अति आवश्यक और महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इस न्यास द्वारा साधना संबंधी सारे दोषों एवं गलतियों का शमन होता है। इसके लिए मूल मंत्र के प्रत्येक अक्षर को बीज मानते हुए, एक एक अक्षर का 108 बार उच्चारण करना चाहिए, यह क्रिया साधना काल मे पहले दिन ही कर लेनी चाहिए। इससे प्रायश्चित न्यास सम्पन्न हो जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा दोषों का शमन हो जाने से आगे के साधना के दिवसों मे जाप करते समय अशुद्धि या त्रुटि हो भी जाए तो न्यूनता नहीं रह पाती है।

अब यहाँ एक और बड़ा सवाल ये उत्पन्न होता है की मंत्र मे अक्षर कैसे गिने जाएँ, तो भाइयो और बहेनों इस विषय मे मेरी अभी कुछ सोध बाकी है। जितना मैं समझ पाया हूँ उतना यहाँ लिख देता हूँ, बाकी विस्तार मे इस विषय को किसी अन्य पोस्ट मे वरिष्ठ भाइयों के निर्देशन मे चर्चा करेंगे।

मंत्र : ॐ परमतत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः

यहाँ ॐ एक अक्षर हो गया, प एक और अक्षर हो गया, फिर र, म, त, त्वा, य, ना, रा, य, णा, य, इसी प्रकार आगे के अक्षरों का भी प्रत्येक अक्षर के हिसाब से 108 बार जप होना आवश्यक है। यहाँ कुछ विशेष बात ये है की किसी भी प्रकार के बीज मंत्रों को एक ही अक्षर माना जाता है जैसे ह्रीं श्रीं आदि, एक उदाहरण लेते हैं....

मंत्र : ॐ ह्रीं मम प्राण देह रॉम प्रति रॉम .....

यहाँ ॐ, ह्रीं, म, म, प्रा, ण, दे, ह, रो, म, प्र, ति, रो, म इसी प्रकार आगे बढ़ते जाना है।

कोई भी अक्षर यदि आधा हो तो वह आधा अक्षर जिस पूरे अक्षर से जुड़ा हुआ है उसके साथ जोड़ के पढ़ा जाता है। जैसे "प्र"
अक्षर मे लगी मात्रा को भी अक्षर के साथ जोड़ कर एक ही अक्षर माना जाता है, जैसे रा, गु, रू आदि।
अक्षर यदि आधा हो और जिस पूरे अक्षर से जुड़ा हुआ हो उसमे मात्रा भी लगी हो तो भी उसे एक ही अक्षर मान कर चलना चाहिए, जैसे त्वा, भ्यो आदि।

दीपनी क्रिया :

उपरोक्त दोनों क्रियाओं की भांति यह दीपनी क्रिया भी एक अति आवश्यक और महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इससे शरीर मे दीपन हो जाता है, प्रकाश फैल जाता है, और प्राण अग्नि चैतन्य हो जाती है। फलस्वरूप उस चैतन्य प्राण अग्नि मे समस्त दोष और न्यूनताएँ जल कर राख़ हो जाती हैं, साथ ही साथ मंत्र खुद दीपित हो जाता है। मंत्र उत्कीलन एक पृथक और जटिल विषय है, उसका विधान भी आसानी से नहीं मिलता, उस जटिल प्रक्रिया की जगह यदि ये सरल सी प्रक्रिया कर ली जाये तो भी काफी अनुकूलता हो जाती है।

दीपनी क्रिया मे मूल मंत्र को माला के एक ही मनके पे सीधा और उल्टा अर्थात लोम विलोम गति से पढ़ते हुए एक माला मंत्र जप करना चाहिए। जैसे की...

ॐ परमतत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः नमः गुरुभ्यो नारायणाय परमतत्वाय ॐ

इस प्रकार माला के एक ही मनके पे उपरोक्त (सीधा उल्टा) मंत्र पढ़ के अगले मनके पर जाएँ।

पत्रिका मे छपे "24 दिनो का चमत्कार" नामक लेख मे आगे सदगुरुदेव कहते हैं की "ये तीनों प्रक्रियाएँ किसी भी प्रकार की साधना मे आवश्यक होती हैं। यदि संभव हो तो इन तीनों प्रक्रियाओं को साधना काल मे प्रतिदिन करना चाहिए पर यदि ये संभव न हो तो कम से कम 1, 11 और 21वें दिन तो करना ही चाहिए। किसी भी प्रकार की साधना को मात्र 24 दिनो मे सिद्ध किया जा सकता है।"

इन तीनों विधानों को किसी भी प्रकार की साधना चाहे वह मंत्र/तंत्र साधना हो या साबर साधना आप कर सकते हैं, साबर मंत्र कीलित नहीं होते, और सामान्य भाषा मे होने के कारण अक्सर बड़े बड़े मंत्र होते हैं इसलिए इन क्रियाओं को करने मे लंबा समय लग सकता है इस बात का ध्यान रखें। ये तीनों क्रियाएँ मूल साधना से पूर्व ही करना है।

जैसा की आरिफ़ भाई ने लिखा है की यह सब के सब गोपनीय सूत्र हैं और सहज ही प्राप्त नहीं होते आप भी इन सूत्रों को अपना कर देखें, सफलता दौड़ती हुई चली आएगी।

इतना बड़ा लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद, मेरा यकीन मानिये इस लेख को इससे छोटा नहीं किया जा सकता था वरना हर एक प्रक्रिया पे बहोत से सवाल उत्पन्न हो जाते।

जय सदगुरुदेव

shivambu(urin) dwara dhatu parivartan

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सम्पूर्ण सृष्टि पारद और गंधक से ही उद्भव हुयी है. और इस बात का अनुमोदन विदेश के विद्वान् भी करते हैं . पाश्चात्य कीमिया के जान कार जिन्हें वह फ्हिलोस्फोर भी कहते हैं , वे यही कहते हैं की इस प्रकृति के प्रत्येक सजीव या निर्जीव में पारद और गंधक का अंश होता ही है फिर वो चाहे, जानवर हो, मौसम हो या जलचर. क्यूंकि पारद प्रकृति पुरूष सदाशिव का सत्व है और गंधक आदि शक्ति माँ पार्वती का रज है. उच्च कोटि के योगी मानव वीर्य को रस या बिन्दु कहते हैं और बिन्दु साधना के द्वारा वीर्य को उर्ध्वगामी कर दिव्व्य शक्तिया प्राप्त कर लेते हैं.

जब ऐसा है तो मानव इससे अछूता कैसे रह सकता है . आप ने सुना या पढा होगा की दिव्व्य मानवो या सिद्धो का शिवाम्बु अर्थात मूत्र भी धातुओ को वेध कर गोल्ड में बदल देता है , आख़िर ऐसा कैसे हो सकता है ???

मूत्र तो वेस्ट मटेरिअल है फिर उसमे कैसे इतनी शक्ति हो सकती है ? वास्तव में प्रकृति के अन्य प्राणियों की भाँती मनुष्य में भी पारद का अंश होता है . जिस प्रकार गंधक का तेल बनाते समय उसमे अज मूत्र , गौमूत्र, अश्व मूत्र , मानव मूत्र, प्याज रस, लहसुन रस की भावना दी जाती है या , संखिया, हरताल , मनाह्सिल आदि का शोधन गधे के मूत्र द्वारा किया जाता है तो वास्तव में होता क्या है की अपरोक्ष रूप से शुद्ध करने के साथ उस मूत्र में व्याप्त पारद का जो की पूर्ण चैतन्य अवस्था में होता है के साथ उन तत्वों का संयोजन या योग करने की प्रक्रिया भी हो जाती है. आप को एक बात बता दूँ की पारद की प्राप्ति सिर्फ़ हिंगुल, अभ्रक या खदानों से ही नही होती बल्कि समुद्रीय जीव यथा शार्क, व्हेल, वनस्पतियों जैसे बथुआ, बेशरम की पत्तियों या अश्व मूत्र से भी होती है. इसका यह मतलब भी नही है की पारद सिर्फ़ इन्ही में होता है बल्कि ऐसा इस लिए है क्यूंकि अन्य प्राणियों के मुकाबले इनके शरीर में पारद के मात्रा ज्यादा होती है.

पाश्चात्य विद्वान् वर्षों से urinal stone बनाने की क्रिया कर रहे हैं . पर वे सफल नही हो पाए , जबकि उनके यहाँ पर रस तंत्र के ग्रन्थ प्रचुर मात्रा में हैं. हाँ वे मूत्र में से पारद जरूर प्राप्त कर पाने में सफल हो गए जो की भस्म के जैसा होता है . और यदि आप भी मूत्र को इकट्ठा करके थोडी देर बाद देखे तो आप उस द्रव्य के ऊपर मोर पंख की आभा वाली परत देख सकते हैं . यह आभा पारद की उपस्तिथि के कारण ही होती है . यदि वे विद्वान् असफल हुए तो इसका कारण था , ज्ञान का पूर्ण अभाव . क्यूंकि जिन भी विद्वानों ने वे ग्रन्थ रचे थे वास्तव में उन्होंने एक बात छुपा राखी थी.
करीब 25 साल पहले गुरुधाम में सदगुरुदेव के सन्यासी शिष्य श्री राघव दास बाबा आए थे और उन्होंने कार्यालय में ही सबके सामने अपने मूत्र से कॉपर को गोल्ड में बदल दिया था . यदि साधक सिद्ध गंधक, पारद, या अन्य दिव्व्य कल्पों का एक निश्चित समय तक भक्चन करता है तो इन सिद्ध रासो में व्याप्त गंधक का शरीरस्थ पारद से योग होता है और शरीर के भीतर के तापमान से उस पारद पर गंधक की जारना होती जाती है और एक निश्चित समय के बाद वो पारद पूर्ण वेधन क्षमता से युक्त हो जाता है और वैसे भी हमारे शरीर के तापमान के कारण शरीरस्थ पारद कभी भी तेज या वेध विहीन नही हो पाता , जरूरत रहती है गंधक के योग और जारण की . क्यूंकि गंधक के कारण ही धातुओं में रंग आता है. वैसे भी गोल्ड का शरीर सीसे का और रंग गंधक की वजह से होती है जैसे ही जारण पूर्ण हो जाता है पारद मूत्र के असिड के साथ वेध करने की शक्ति युक्त होकर धातुओं का वेधन कर देता है. शारीरिक तापमान , गंधक, तथा असिड इनका योग पारद की वेधन क्षमता को सहस्त्र या कोटि गुना बढ़ा देते हैं. तथा उन दिव्व्य कल्पों के प्रभाव से वीर्य भी अधो गामी न होकर उर्ध्व गामी होकर साधक को असीम शक्तियां दे देता है तथा दीर्घ जीवी कर देता है. असाध्य कुछ भी नही है जरूरत है इस तंत्र के भीतर छुपे हुए सूत्रों को प्राप्त कर समझने और क्रिया करने की , सफलता बस आपके सामने ही है।
आपका ही

Thursday, September 15, 2011

Powerfull rich mother Bglamuki Silence

सर्वशक्ति सम्पन्न माँ बगलामुखी साधना

यह विद्या शत्रु का नाश करने में अद्भुत है, वहीं कोर्ट, कचहरी में, वाद-विवाद में भी विजय दिलाने में सक्षम है। इसकी साधना करने वाला साधक सर्वशक्ति सम्पन्न हो जाता है। उसके मुख का तेज इतना हो जाता है कि उससे आँखें मिलाने में भी व्यक्ति घबराता है। सामनेवाले विरोधियों को शांत करने में इस विद्या का अनेक राजनेता अपने ढंग से इस्तेमाल करते हैं। यदि इस विद्या का सदुपयोग किया जाए तो देशहित होगा।
मंत्र शक्ति का चमत्कार हजारों साल से होता आ रहा है। कोई भी मंत्र आबध या किलित नहीं है यानी बँधे हुए नहीं हैं। सभी मंत्र अपना कार्य करने में सक्षम हैं। मंत्र का सही विधि द्वारा जाप किया जाए तो वह मंत्र निश्चित रूप से सफलता दिलाने में सक्षम होता है।
हम यहाँ पर सर्वशक्ति सम्पन्न बनाने वाली सभी शत्रुओं का शमन करने वाली, कोर्ट में विजय दिलाने वाली, अपने विरोधियों का मुँह बंद करने वाली माँ बगलामुखी की आराधना का सही प्रस्तुतीकरण दे रहे हैं। हमारे पाठक इसका प्रयोग कर लाभ उठाने में समर्थ होंगे, ऐसी हमारी आशा है।
यह विद्या शत्रु का नाश करने में अद्भुत है, वहीं कोर्ट, कचहरी में, वाद-विवाद में भी विजय दिलाने में सक्षम है। इसकी साधना करने वाला साधक सर्वशक्ति सम्पन्न हो जाता है।
इस साधना में विशेष सावधानियाँ रखने की आवश्यकता होती है जिसे हम यहाँ पर देना उचित समझते हैं। इस साधना को करने वाला साधक पूर्ण रूप से शुद्ध होकर (तन, मन, वचन) एक निश्चित समय पर पीले वस्त्र पहनकर व पीला आसन बिछाकर, पीले पुष्पों का प्रयोग कर, पीली (हल्दी) की 108 दानों की माला द्वारा मंत्रों का सही उच्चारण करते हुए कम से कम 11 माला का नित्य जाप 21 दिनों तक या कार्यसिद्ध होने तक करे या फिर नित्य 108 बार मंत्र जाप करने से भी आपको अभीष्ट सिद्ध की प्राप्ति होगी।
आँखों में तेज बढ़ेगा, आपकी ओर कोई निगाह नहीं मिला पाएगा एवं आपके सभी उचित कार्य सहज होते जाएँगे। खाने में पीला खाना व सोने के बिछौने को भी पीला रखना साधना काल में आवश्यक होता है वहीं नियम-संयम रखकर ब्रह्मचारीय होना भी आवश्यक है।

ऊँ ह्मीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्मीं ऊँ स्वाहा।

हमने उपर्युक्त सभी बारीकियाँ बता दी हैं। अब यहाँ पर हम इसकी संपूर्ण विधि बता रहे हैं। इस छत्तीस अक्षर के मंत्र का विनियोग ऋयादिन्यास, करन्यास, हृदयाविन्यास व मंत्र इस प्रकार है--

विनियोग

ऊँ अस्य श्री बगलामुखी मंत्रस्य नारद ऋषि:
त्रिष्टुपछंद: श्री बगलामुखी देवता ह्मीं बीजंस्वाहा शक्ति: प्रणव: कीलकं ममाभीष्ट सिद्धयार्थे जपे विनियोग:।

ऋष्यादि न्यास-नारद ऋषये नम: शिरसि, त्रिष्टुय छंद से नम: मुखे, बगलामुख्यै नम:, ह्मदि, ह्मीं बीजाय नम: गुहेय, स्वाहा शक्तये नम:, पादयो, प्रणव: कीलक्षम नम: सर्वांगे।



हृदयादि न्यास

ऊँ ह्मीं हृदयाय नम: बगलामुखी शिरसे स्वाहा, सर्वदुष्टानां शिरवायै वषट्, वाचं मुखं वदं स्तम्भ्य कवचाय हु, जिह्वां भीलय नेत्रत्रयास वैषट् बुद्धिं विनाशय ह्मीं ऊँ स्वाहा अष्टाय फट्।

ध्यान
मध्ये सुधाब्धि मणि मंडप रत्नवेघां
सिंहासनो परिगतां परिपीत वर्णाम्।
पीताम्बरा भरणमाल्य विभूषितांगी
देवीं भजामि घृत मुदग्र वैरिजिह्माम ।।

मंत्र इस प्रकार है-- ऊँ ह्मीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्मीं ऊँ स्वाहा।

मंत्र जाप लक्ष्य बनाकर किया जाए तो उसका दशांश होम करना चाहिए। जिसमें चने की दाल, तिल एवं शुद्ध घी का प्रयोग होना चाहिए एवं समिधा में आम की सूखी लकड़ी या पीपल की लकड़ी का भी प्रयोग कर सकते हैं। मंत्र जाप पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर के करना चाहिए।

Tuesday, September 13, 2011

what means aghori

जय गुरुदेव.... "अघोरी " एक शब्द जो की सामान्य लोगों के मध्य एक अनजाने भय का परिचायक बना हुआ है.... वास्तव में कुछ ग्रहस्थ साधक भी अघोरी साधनाओ को करने की सोचते तक नहीं उन्हें लगता है की अघोरी साधक मात्र ऐसी किर्याएँ करते हैं जिन्हें करने की सामान्य मनुष्य सोच भी नहीं सकते... और फिर कुछ गलत प्रवति के तांत्रिको ने तंत्र, वाममार्ग, नाथपंथ जैसे नामो का इतना गलत पर्योग और परचार किया की सामान्य वर्ग के मध्य ये प्यारे नाम गालियाँ बन गये .. अघोर जैसा प्यारा शब्द गाली बन गया किसी को अघोरी कह दो तो वो लड़ने को तैयार हो जाये.. उसे लगता है की मुझे गाली दी गयी है..
जबकि अघोर शब्द का अर्थ होता है "सरल ". किसी को "घोरी" कहो तो गाली हो सकती है. घोर का अर्थ होता है जटिल. कहते हैं ना घोर-घमासान -- जटिल, उलझा हुआ तो घोर...I अघोर का अर्थ होता है सरल बच्चे जैसा निर्दोष! अघोर शब्द थोड़े से बुद्धो के लिए पर्योग में लाया जा सकता है जैसे गौतम बुद्ध- अघोरी, कृषण- अघोरी, क्रिस्ट-अघोरी, गोरख- अघोरी. सिर्फ ऐसे लोगों के लिए उपयोग में लाया जा सकता है सरल निर्दोष सीधे सादे..
नाथपंत..... गोरखनाथ और उनके गुरु मछिंदर नाथ के कारण तंत्र की ये शाखा नाथपंथ कहलाने लगी! बड़ा प्यारा भाव है नाथ का अर्थ होता है... मालिक. जिसको सूफी कहते हैं या मालिक. सब उसका है मालिक का है .. हम भी मालिक के संसार भी मालिक का.. जैसे उसकी मर्ज़ी जियेंगे.. जैसे जिलाएगा जियेंगे.. हम अपनी मर्ज़ी आरिपित ना करेंगे.. यह भाव है नाथपंथ का.. क्योंकि अगर हमारी मर्ज़ी आएगी तो अहंकार आएगा.. संकल्प आएगा.. अहंकार आया तो भटक जायेंगे...
जय गुरुदेव......

Agate Saraswati Sadhana

सुलेमानी सरस्वती साधना --
इस साधना के कई लाभ है जहाँ जे साधक को एक नये ज्ञान से जोडती है वही उसे पैसे अदि की कमी नहीं आने देती लोटरी अदि में विजय दिलाती है और उसे आने वाले समय से भी अवगत कराती है यह मेरी स्व की और कई साधको दुयारा परखी हुई है!यह आपके जीवन को एक नई सेध देती है इसे करना भी आसन है और सामग्री की भी सवर साधनायो में इतनी जरूरत नहीं होती बस जरूरत है तो पवित्रता की !
विधि -- सर्व पर्थम इशनान करके सफेद वस्त्र पहने और पशिम दिशा की तरफ मुख करके एक सफेद बस्तर विशा दे और आगे तिल के तेल का दिया लगा दे लोवान का धूफ दे सुघदित इतर छिडक दे और सफेद चमेली के फूल पास रखे ना मिले तो काली मोतिया भी रख सकते है अगर वोह भी ना मिले तो की भी सफेद कली ले ले जो दिए के पास रखे थोरे सत्हब को गोबर से लीप के उस जगा दिया लगा दे अगर स्थान पका हो तो उसे जल जा दूध से धो ले भोग कर लिए सफेद रंग की बर्फी जा पेडे ले सकते है !साधना की दिशा पशिम रहेगी और जप संख्य एक माला !माला सफेद हक़ीक किले सकदे है !जा एक सो एक वार जप कर ले !
जप काल में कई अनुभुतिया हो सकती है अपने मन को सथिर रखे किसी भी परकार की आवाज सुने तो मत बोले जब साधना पूरी हो जाये तो बात करे और अपनी अभिलाषा व्यक्त करे !यह एक तीक्षण साधना है इस लिए शुरू तभी करे अगर पूरी करनी हो!इस साधना में कई पर्ताक्ष अनुभव होते है कई वार सफेद वस्त्रो में कई लोग भी जो इस लाइन को मानते है दिख जाते है !अगर कोई दिक्त य़ा रही हो तो मुझे मेल कर सकते है मुझे आपकी मदद कर के ख़ुशी होगी आप पुरे मन से करे आपके लिए यह साधना नये आयाम पैदा करेगी !

साबर मंत्र ---
बिस्मिला घट में सृस्ती जुबाह पे तालीम ,
सिर पे पंजा पीर उस्ताद का साबित रख यकीन !
मुहम्द दे रसूल अला मरे जिन्दे फकरो को ऐश करन ला !
य़ा करीमा कर्म कर कर्म कर इलाही,
मुहम्द कल की बात बता दे मुहम्द तेरी पातशाही !

इस मन्त्र का जप पुरे मन से करे १०१ वार जा एक माला जप पर्याप्त है !आशा है आपके जीवन में यह साधना जरुर बदलाव लाएगी !
जय गुरुदेव !

Suede venerable saints Dyara Ganesh Saraswati Sadhana

संतो दयारा पूजित साबर गणेश सरस्वती साधना -
यह साधना बहुत ही खास है और हर इन्सान को अंधकार से परकाश की और ले जाती है !व्ही दिव्या दृष्टि पर्दान करने में भी सहायक है !इसे संत मत के कए सिद्ध पुरषों ने सिद्ध किया है !पिश्ले कुश दिनों से सरस्वती की साधना पे ही लेख दे रहा हू क्यों के ज्ञान की देवी के ८ स्वरुप की साधना है और उन में से ज्यादा कर जहा दे चूका हू साबर विधि से आज की साधना बहुत ही खास है और यह ऐसे ही प्राप्त नहीं होती आप आप परयत्न करे इन साधनायो को करने का मुझे विश्वाश है आप को गुरु किरपा से प्राप्ति जरुर होगी !यह साधना याद दस्त बढाने की बेजोड़ साधना है !
साधना काल- यह २१ दिन की साधना है !
माला ------सफेद हक़ीक की ले जा मोतियों की !
बस्तर------- सफेद!
आसन -----सफेद !
भोग --------खीर जा दूध का बना हुआ परशाद !
जप सख्या --एक माला !
समय -----सुभाह जा शाम ७ वजे संध्या का समय इस साधना के लिए उचित रहता है !
विधि --साधना के लिए सभ से पहले इशनान कर के सुध धुले बस्तर पहने और गुरु पूजन और गणेश पूजन कर मानसिक आज्ञा प्राप्त करे और मन को पर्सन रखते हुए सरस्वती का पूजन ज्योत पे ही कर सकते है मतलव ज्योत को ही सरस्वती का स्वरुप मन कर पूजन करे और माता का चीटर भी रख सकते है श्री यंत्र जा सरस्वती यन्त्र पे भी पूजा कर सकते है !एक चंडी की सिलाखा और शहत भी पास रख सकते है सिद्ध होने के बाद किसी भी पूर्णमा जा पंचमी जा बसंत पंचमी के दिन इस से मन्त्र पड़ते हू अपने बचो की जीभ पे ऐं बीज लिख के उन्हें मेघावी बना सकते हो !ना भी रख सको तो भी इसे सपन करे और एक ज्ञान से जोड़ देती है साधक को !जप धीरे धीरे मुख में जा अंतर में ही करे बोल के नहीं !साधना पूरी होने के बाद २१ दिन बाद माला को गले में धारण कर ले और इस तरह साधना सिद्ध हो जाती है आप अपने बच्चे को भी माला पहना सकते है यह साधना सभी परकार के तांत्रिक पर्योगो से भी रक्षा करती है उन पर्योगो को निष्फल कर देती है !इस वारे अगर कोई संका हो जा ना समझ आये तो मुझे मेल कर दीजिये जा नीचे कमेन्ट दे दे आप की जिज्ञाशा शांत कर दूंगा .!साधना समाप्ति के बाद चित्र को पूजा स्थान में स्थापित कर दे !ज्योत पुरे साधना काल में जलती रहे !

साबर मन्त्र ----
ॐ नमो सरस्वती मई स्वर्ग लोक बैकुंठ से आई !
शिव जी बैठे अंगुठ मरोड़!
देवता आया तैतिश करोड़!
संता को रखनी दंता को भक्षनी शिव शक्ति बिन कोन थी !
जीवा ज्वाला सरस्वती हिरदे बसे हमेश भूली वाणी कन्ठ करावे गोरी पुत्र गणेश !,

जय गुरुदेव

Friday, September 9, 2011

Guru Diksha is the spiritual path open for the seeker

गुरु दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का मार्ग साधना के क्षेत्र में खुल जाता है। साधनाओं की बात आते ही दस महाविद्या का नाम सबसे ऊपर आता है। प्रत्येक महाविद्या का अपने आप में अलग ही महत्त्व है। लाखों में कोई एक ही ऐसा होता है जिसे सदगुरू से महाविद्या दीक्षा प्राप्त हो पाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद सिद्धियों के द्वार एक के बाद एक कर साधक के लिए खुलते चले जाते है।

महाकाली महाविद्या दीक्षा
यह तीव्र प्रतिस्पर्धा का युग है। आप चाहे या न चाहे विघटनकारी तत्व आपके जीवन की शांति, सौहार्द भंग करते ही रहते हैं। एक दृष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्ति की अपेक्षा एक सरल और शांत प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के लिए अपमान, तिरस्कार के द्वार खुले ही रहते हैं। आज ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है, जिसका कोई शत्रु न हो ... और शत्रु का तात्पर्य मानव जीवन की शत्रुता से ही नहीं, वरन रोग, शोक, व्याधि, पीडा भी मनुष्य के शत्रु ही कहे जाते हैं, जिनसे व्यक्ति हर क्षण त्रस्त रहता है ... और उनसे छुटकारा पाने के लिए टोने टोटके आदि के चक्कर में फंसकर अपने समय और धन दोनों का ही व्यय करता है, परन्तु फिर भी शत्रुओं से छुटकारा नहीं मिल पाता।

महाकाली दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने में सक्षम हो जाता है, चाहे वह शत्रु आभ्यांतरिक हों या बाहरी, इस दीक्षा के द्वारा उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, क्योंकि महाकाली ही मात्र वे शक्ति स्वरूपा हैं, जो शत्रुओं का संहार कर अपने भक्तों को रक्षा कवच प्रदान करती हैं। जीवन में शत्रु बाधा एवं कलह से पूर्ण मुक्ति तथा निर्भीक होकर विजय प्राप्त करने के लिए यह दीक्षा अद्वितीय है। देवी काली के दर्शन भी इस दीक्षा के बाद ही सम्भव होते है, गुरु द्वारा यह दीक्षा प्राप्त होने के बाद ही कालिदास में ज्ञान का स्रोत फूटा था, जिससे उन्होंने 'मेघदूत' , 'ऋतुसंहार' जैसे अतुलनीय काव्यों की रचना की, इस दीक्षा से व्यक्ति की शक्ति भी कई गुना बढ़ जाती है।

तारा दीक्षा
तारा के सिद्ध साधक के बारे में प्रचिलित है, वह जब प्रातः काल उठाता है, तो उसे सिरहाने नित्य दो तोला स्वर्ण प्राप्त होता है। भगवती तारा नित्य अपने साधक को स्वार्णाभूषणों का उपहार देती हैं। तारा महाविद्या दस महाविद्याओं में एक श्रेष्ठ महाविद्या हैं। तारा दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक को जहां आकस्मिक धन प्राप्ति के योग बनने लगते हैं, वहीं उसके अन्दर ज्ञान के बीज का भी प्रस्फुटन होने लगता है, जिसके फलस्वरूप उसके सामने भूत भविष्य के अनेकों रहस्य यदा-कदा प्रकट होने लगते हैं। तारा दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का सिद्धाश्रम प्राप्ति का लक्ष्य भी प्रशस्त होता हैं।

षोडशी त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा
त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा प्राप्त होने से आद्याशक्ति त्रिपुरा शक्ति शरीर की तीन प्रमुख नाडियां इडा, सुषुम्ना और पिंगला जो मन बुद्धि और चित्त को नियंत्रित करती हैं, वह शक्ति जाग्रत होती है। भू भुवः स्वः यह तीनों इसी महाशक्ति से अद्भुत हुए हैं, इसीसलिए इसे त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है। इस दीक्षा के माध्यम से जीवन में चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही साथ आध्यात्मिक जीवन में भी सम्पूर्णता प्राप्त होती है, कोई भी साधना हो, चाहे अप्सरा साधना हो, देवी साधना हो, शैव साधना हो, वैष्णव साधना हो, यदि उसमें सफलता नहीं मिल रहीं हो, तो उसको पूर्णता के साथ सिद्ध कराने में यह महाविद्या समर्थ है, यदि इस दीक्षा को पहले प्राप्त कर लिया जाए तो साधना में शीघ्र सफलता मिलती है। गृहस्थ सुख, अनुकूल विवाह एवं पौरूष प्राप्ति हेतु इस दीक्षा का विशेष महत्त्व है। मनोवांछित कार्य सिद्धि के लिए भी यह दीक्षा उपयुक्त है। इस दीक्षा से साधक को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।

भुवनेश्वरी दीक्षा
भूवन अर्थात इस संसार की स्वामिनी भुवनेश्वरी, जो 'ह्रीं' बीज मंत्र धारिणी हैं, वे भुवनेश्वरी ब्रह्मा की भी आधिष्ठात्री देवी हैं। महाविद्याओं में प्रमुख भुवनेश्वरी ज्ञान और शक्ति दोनों की समन्वित देवी मानी जाती हैं। जो भुवनेश्वरी सिद्धि प्राप्त करता है, उस साधक का आज्ञा चक्र जाग्रत होकर ज्ञान-शक्ति, चेतना-शक्ति, स्मरण-शक्ति अत्यन्त विकसित हो जाती है। भुवनेश्वरी को जगतधात्री अर्थात जगत-सुख प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। दरिद्रता नाश, कुबेर सिद्धि, रतिप्रीती प्राप्ति के लिए भुवनेश्वरी साधना उत्तम मानी है है। इस महाविद्या की आराधना एवं दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति की वाणी में सरस्वती का वास होता है। इस महाविद्या की दीक्षा प्राप्त कर भुवनेश्वरी साधना संपन्न करने से साधक को चतुर्वर्ग लाभ प्राप्त होता ही है। यह दीक्षा प्राप्त कर यदि भुवनेश्वरी साधना संपन्न करें तो निश्चित ही पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है।

छिन्नमस्ता महाविद्या दीक्षा
भगवती छिन्नमस्ता के कटे सर को देखकर यद्यपि मन में भय का संचार अवश्य होता है, परन्तु यह अत्यन्त उच्चकोटि की महाविद्या दीक्षा है। यदि शत्रु हावी हो, बने हुए कार्य बिगड़ जाते हों, या किसी प्रकार का आपके ऊपर कोई तंत्र प्रयोग हो, तो यह दीक्षा अत्यन्त प्रभावी है। इस दीक्षा द्वारा कारोबार में सुदृढ़ता प्राप्त होती है, आर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैं, साथ ही व्यक्ति के शरीर का कायाकल्प भी होना प्रारम्भ हो जाता है। इस साधना द्वारा उच्चकोटि की साधनाओं का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, तथा उसे मौसम अथवा सर्दी का भी विशेष प्रभाव नहीं पङता है।

त्रिपुर भैरवी दीक्षा
भूत-प्रेत एवं इतर योनियों द्वारा बाधा आने पर जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ग्रामीण अंचलों में तथा पिछडे क्षेत्रों के साथ ही सभ्य समाज में भी इस प्रकार के कई हादसे सामने आते है, जब की पूरा का पूरा घर ही इन बाधाओं के कारण बर्बादी के कगार पर आकर खडा हो गया हो। त्रिपुर भैरवी दीक्षा से जहां प्रेत बाधा से मुक्ति प्राप्त होती है, वही शारीरिक दुर्बलता भी समाप्त होती है, व्यक्ति का स्वास्थ्य निखारने लगता है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक में आत्म शक्ति त्वरित रूप से जाग्रत होने लगती है, और बड़ी से बड़ी परिस्थियोंतियों में भी साधक आसानी से विजय प्राप्त कर लेता है, असाध्य और दुष्कर से दुष्कर कार्यों को भी पूर्ण कर लेता है। दीक्षा प्राप्त होने पर साधक किसी भी स्थान पर निश्चिंत, निर्भय आ जा सकता है, ये इतर योनियां स्वयं ही ऐसे साधकों से भय रखती है।

धूमावती दीक्षा
धूमावती दीक्षा प्राप्त होने से साधक का शरीर मजबूत व् सुदृढ़ हो जाता है। आए दिन और नित्य प्रति ही यदि कोई रोग लगा रहता हो, या शारीरिक अस्वस्थता निरंतर बनी ही रहती हो, तो वह भी दूर होने लग जाती है। उसकी आखों में प्रबल तेज व्याप्त हो जाता है, जिससे शत्रु अपने आप में ही भयभीत रहते हैं। इस दीक्षा के प्रभाव से यदि कीसी प्रकार की तंत्र बाधा या प्रेत बाधा आदि हो, तो वह भी क्षीण हो जाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद मन में अदभुद साहस का संचार हो जाता है, और फिर किसी भी स्थिति में व्यक्ति भयभीत नहीं होता है। तंत्र की कई उच्चाटन क्रियाओं का रहस्य इस दीक्षा के बाद ही साधक के समक्ष खुलता है।

बगलामुखी दीक्षा
यह दीक्षा अत्यन्त तेजस्वी, प्रभावकारी है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक निडर एवं निर्भीक हो जाता है। प्रबल से प्रबल शत्रु को निस्तेज करने एवं सर्व कष्ट बाधा निवारण के लिए इससे अधिक उपयुक्त कोई दीक्षा नहीं है। इसके प्रभाव से रूका धन पुनः प्राप्त हो जाता है। भगवती वल्गा अपने साधकों को एक सुरक्षा चक्र प्रदान करती हैं, जो साधक को आजीवन हर खतरे से बचाता रहता है।

मातंगी दीक्षा
आज के इस मशीनी युग में जीवन यंत्रवत, ठूंठ और नीरस बनकर रह गया है। जीवन में सरसता, आनंद, भोग-विलास, प्रेम, सुयोग्य पति-पत्नी प्राप्ति के लिए मातंगी दीक्षा अत्यन्त उपयुक्त मानी जाती है। इसके अलावा साधक में वाक् सिद्धि के गुण भी जाते हैं। उसमे आशीर्वाद व् श्राप देने की शक्ति आ जाती है। उसकी वाणी में माधुर्य और सम्मोहन व्याप्त हो जाता है और जब वह बोलता है, तो सुनने वाले उसकी बातों से मुग्ध हो जाते है। इससे शारीरिक सौन्दर्य एवं कान्ति में वृद्धि होती है, रूप यौवन में निखार आता है। इस दीक्षा के माध्यम से ह्रदय में जिस आनन्द रस का संचार होता है, उसके फलतः हजार कठिनाई और तनाव रहते हुए भी व्यक्ति प्रसन्न एवं आनन्द से ओत-प्रोत बना रहता है।

कमला दीक्षा
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार प्रकार के पुरुषार्थों को प्राप्त करना ही सांसारिक प्राप्ति का ध्येय होता है और इसमे से भी लोग अर्थ को अत्यधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। इसका कारण यह है की भगवती कमला अर्थ की आधिष्ठात्री देवी है। उनकी आकर्षण शक्ति में जो मात्रु शक्ति का गुण विद्यमान है, उस सहज स्वाभाविक प्रेम के पाश से वे अपने पुत्रों को बांध ही लेती हैं। जो भौतिक सुख के इच्छुक होते हैं, उनके लिए कमला सर्वश्रेष्ठ साधना है। यह दीक्षा सर्व शक्ति प्रदायक है, क्योंकि कीर्ति, मति, द्युति, पुष्टि, बल, मेधा, श्रद्धा, आरोग्य, विजय आदि दैवीय शक्तियां कमला महाविद्या के अभिन्न देवियाँ हैं।

प्रत्येक महाविद्या दीक्षा अपने आप में ही अद्वितीय है, साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर या गुरुदेव से निर्देश प्राप्त कर इनमें से कोई भी दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक दीक्षा के महत्त्व का एक प्रतिशत भी वर्णन स्थानाभाव के कारण यहां नहीं हुआ है, वस्तुतः मात्र एक महाविद्या साधना सफल हो जाने पर ही साधक के लिए सिद्धियों का मार्ग खुल जाता है, और एक-एक करके सभी साधनों में सफल होता हुआ वह पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है।

यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है, कि दीक्षा कोई जादू नहीं है, कोई मदारी का खेल नहीं है, कि बटन दबाया और उधर कठपुतली का नाच शुरू हो गया।

दीक्षा तो एक संस्कार है, जिसके माध्यम से कुस्नास्कारों का क्षय होता है, अज्ञान, पाप और दारिद्र्य का नाश होता है, ज्ञान शक्ति व् सिद्धि प्राप्त होती है और मन में उमंग व् प्रसन्नता आ पाती है। दीक्षा के द्वारा साधक की पशुवृत्तियों का शमन होता है ... और जब उसके चित्त में शुद्धता आ जाती है, उसके बाद ही इन दीक्षाओं के गुण प्रकट होने लगते हैं और साधक अपने अन्दर सिद्धियों का दर्शन कर आश्चर्य चकित रह जाता है।

जब कोई श्रद्धा भाव से दीक्षा प्राप्त करता है, तो गुरु को भी प्रसनता होती है, कि मैंने बीज को उपजाऊ भूमि में ही रोपा है। वास्तव में ही वे सौभाग्यशाली कहे जाते है, जिन्हें जीवन में योग्य गुरु द्वारा ऐसी दुर्लभ महाविद्या दीक्षाएं प्राप्त होती हैं, ऐसे साधकों से तो देवता भी इर्ष्या करते हैं।

- नवम्बर ९८ , मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान


Guru Diksha is the spiritual path open for the seeker

Parad lakshmi shadhna

पारद लक्ष्मी
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जीवन में मानसिक और भौतिक उन्नति के लिए धन की उपयोगिता को नकारा नही जा सकता. क्यूंकि कहावत है की “शत्रु को समाप्त करना हो तो उसकी आर्थिक प्रगति के स्रोत को ही ख़त्म कर दो वो ख़ुद ही ख़त्म हो जाएगा”.

सदगुरुदेव ने कभी भी यह नही कहा की दरिद्र रहने में महानता है. न ही जितना है उतने में सुखी रहो जैसे वाक्यों को अपने शिष्यों को ही कभी दिया .
भाग्य को सौभाग्य में बदलने और जीवन स्तर को उंचा उठाने के लिए ही उन्होंने प्रत्येक शिविर में धन व सौभाग्य से सम्बंधित साधनाएं शिष्यों और साधकों को करवाई.
इन्ही साधनों में पारद लक्ष्मी जो श्री का ही प्रतिक है का प्रयोग व स्थापन पूर्ण प्रभाव दायक है. जिस घर में भी पारदेश्वरी स्थापित होती हैं ,उस स्थान पर दरिद्रता रह ही नही सकती , ऐश्वर्य व सौभाग्य को वह पर आना ही पड़ता है , मुझे अपने जीवन में जो भी सफलता व उन्नति की प्राप्ति हुयी है ,उसके मूल में भगवती पारदेश्वरी की साधना और स्थापन का अभूतपूर्व योगदान है.

हमें पारदेश्वरी से और आर्थिक उन्नति से सम्बंधित कुछ बातो की जानकारी होनी चाहिए :

पारद लक्ष्मी का निर्माण विशुद्ध प्रद से होना चाहिए क्यूंकि पारद चंचल होता है और लक्ष्मी भी चंचल होती हैं , इस लिए पारद के बंधन के साथ लक्ष्मी भी अबाध होते जाती हैं.
पारदेश्वरी का निर्माण श्रेष्ठ व धन प्रदायक योग में होना चाहिए.

पारदेश्वरी के निर्माण के लिए पारद मर्दन करते समय तथा उनके अंगो को बनते समय "रजस मंत्र" का जप २०००० बार होना चाहिए इसमे १०००० मंत्र खरल करते हुए सामान्य रूप से तथा १०००० बार लोम विलोम रूप से मंत्र के प्रत्येक वर्ण का स्थापन उनके अंगों में करना चाहिए. "रजस मंत्र" जो की आधारभूत मंत्र या पूर्ण वर्णात्मक मंत्र कहलाता है के बिना इनका निर्माण करने पर चैतन्यता का अभाव रहता है तथा यह एक विग्रह मात्र होती हैं जिसे घर में रखने पर कोई लाभ नही होता . येही वजह है की जब आप किसी दुकान से इस प्रकार की मूर्ति खरीदते हैं तो कोई लाभ नही होता भले ही आप उनकी कितनी भी पूजा कर लें.

पारदेश्वरी का स्थापन आग्नेय दिशा में होना चाहिए.

इसके बाद आप सद्द गुरुदेव से इनका मंत्र प्राप्त कर प्रयोग करे , यदि प्रयोग नही भी कर पाते तब भी इनका स्थापन उन्नति के पथ पर आपको अग्रसर करता ही है.

आप इन बातो का ध्यान रखे और देखे की कैसे सम्पन्नता आपके गले में वरमाला डालती है।

Hell of the different speeds

‎" नरकों की विभिन्न गतियाँ "


राजा परीक्षित ने पूछा महर्षि! लोगों को जो ये ऊँची नीची गतियाँ प्राप्त होती है, उनमें इतनी विभिन्नता क्यों है श्री शुकदेव जी ने कहा राजन ! कर्म करने वाले पुरुष सात्विक, राजस और तामस तीन प्रकार के होते हैं तथा उनकी श्रद्धाओं में भी भेद रहता है। इस प्रकार स्वभाव और श्रद्धा के भेद से उनके कर्मो् की गतियाँ भी भिन्न भिन्न होती है और न्यूनाधिकरुप में ये सभी गतियाँ सभी कर्ताओ को प्राप्त होती है। इसी प्रकार निषिद्ध कर्मरुप पाप करने वालों को भी उनकी श्रद्धा की असमानता के कारण, समान फल नहीं मिलता। अतः अनादि अविघा के वशीभूत होकर कामना पूर्वक किये हुये उन निषिद्ध कर्मो् के परिणाम में जो हजारों तरह की नारकी गतियाँ होती है, उनका विस्तार से वर्णन करेंगे। राजा परिक्षित ने पूछा भगवान! आप जिनका वर्णन करना चाहते हैं। वे नरक इसी पृथ्वी के कोई देश विशेष हैं अथवा त्रिलोक से बाहर या इसी के भीतर किसी जगह है श्री शुकदेवजी ने कहा राजन ! वे त्रिलोक के भीतर ही हैं तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊपर स्थित हैं। इसी दिशा में अग्निषवात्ता आदि पितृगण रहते हैं, वे अत्यन्त एकाग्रता पूर्वक अपने सेवकों सहित रहते हैं तथा भगवान की आज्ञा का उल्लंघनकरते हुए, अपने दूतों द्वारा वहाँ लाये हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मो के अनुसार पाप का फल दण्ड देते है। परीक्षित ! कोई कोई लोग नरकों की संख्या इक्कीस बताते हैं, अब हम नाम, रूप और लक्षणों के अनुसार उनका क्रमशः वर्णन करते हैं।

उनके नाम हैं तामिस्त्र्, अन्धमिस्त्र्, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र्, आसिपत्र्वन, सकूरमुख, अन्धकूप, मिभोजन, सन्देश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टकशल्मली, वैतरणी, पुयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि और अयःपान। इनको मिलाकर कुल अटठाईस नरक तरह तरह की यातनाओं को भोगने के स्थान है।

जो पुरूष दूसरों के धन, सन्तान अथवा स्त्रियों का हरण करता है, उसे अत्यन्त भयानक यमदूत कालपाश में बांधकर बलात्कार से तामिस्त्र् नरक में गिरा देते हैं। उस अन्धकारमय नरक में उसे अन्न जल न देना, डंडे लगाना और भय दिखलाना आदि अनेक प्रकार के उपायों से पीडि़त किया जाता है। इससे अत्यन्त दुखी होकर वह एकाएक मूच्छिर्त हो जाता है। इसी प्रकार जो पुरूष किसी दूसरे को धोखा देकर उसकी स्त्री आदि को भोगता है, वह अन्धतमिस्त्र् नरक में पड़ता है। वहाँ की यातनाओं में पड़कर वह जड़ से कटे हुए वृक्ष के समान, वेदना के मारे सारी सुध बुध खो बैठता है और उसे कुछ भी नहीं सूझ पड़ता। इसी से इस नरक को अन्धतमिस्त्र् कहते है।जो क्रूर मनुष्य इस लोक में अपना पेट पालने के लिए जीवित पशु या पक्षियों को राँधता है, उस हृह्र्दयहीन, राक्षसों से भी गये बीते पुरूष को यमदूत कुम्भीपाक नरक में ले जाकर खौलते हुए तैल में राँधते हैं। जो मनुष्य इस लोक में माता पिता, ब्राहमण और वेद से विरोध करता है, उसे यमदूत कालसूत्र् नरक में ले जाते हैं। इसका घेरा दस हजार योजन है। इसकी भूमि ताँबे की है। इसमें जो तपा हुआ मैदान है, वह ऊपर से सूर्य और नीचे से अग्नि के दाह से जलता रहता है। वहाँ पहुंचाया हुआ पापी जीव भूख प्यास से व्याकुल हो जाता है और उसका शरीर बाहर भीतर से जलने लगता है। उसकी बैचेनी यहाँ तक बढ़ती है कि वह कभी बैठता है, कभी लेटता है, कभी छटपटाने लगता है, कभी खड़ा होता है और कभी इधर उधर दौड़ने लगता है। इस प्रकार उस नर पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने ही हजार वर्ष तक उसकी यह दुर्गति होती रहती है ।

राजन ! इस लोक में जो व्यक्ति चोरी या बरजोरी से ब्राह्मण अथवा आपत्ति का समय न होने पर भी किसी दूसरे पुरूष के सुवर्ण और रत्नादिका हरण करता है, उसे मरने पर यमदूत संदंश नामक नरक में ले जाकर तपाये हुए लोहे के गोलों से दागते हैं और सँडासी से उसकी खाल नोचते हैं। इस लोक में यदि कोई पुरूष अगम्या स्त्री के साथ सम्भोग करता है अथवा कोई स्त्री अगम्या पुरूष से व्याभिचार करती है, तो यमदूत उसे तपतसूर्मि नाम नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते है तथा पुरूष को तपाये हुए लोहे की स्त्री मूर्ति से और स्त्री को तपायी हुई पुरूष प्रतिमा से अलिंगन कराते हैं।

जो पुरूष इस लोक में पशु आदि सभी के साथ व्याभिचार करता है, उसे मृत्यु के बाद यमदूत वज्र के समान कठोर काँटोवाले सेमर के वृक्ष पर चढ़ाकर फिर नीचे की ओर खींचते हैं। जो राजा या राजपुरूष इस लोक में श्रेष्ठ कुल में जन्म पाकर भी धर्म की मयार्दा का उच्छेद करते हैं, वे उस मयार्दातिक्रमण के कारण मरने पर वैतरणी नदी में पटके जाते हैं। यह नदी नरकों की खाई के समान है, उसमें मल, मूत्र्, पीब, रक्त, केश, नख हडडी, चर्बी्, मांस और मज्जा आदि गंदी चीजें भरी हुई हैं। वहाँ गिरने पर उन्हें इधर उधर से जल के जीव नोचते हैं। जो पाखण्डी लोग पाखण्ड पूर्ण यज्ञों में पशुओं का वध करते हैं, उन्हें परलोक में वैशस विशसनद्ध नरक में डालकर वहाँ के अधिकारी बहुत पीड़ा देकर काटते हैं।

जो कोई चोर अथवा राजा या राजपुरूष इस लोक में किसी के शरीर में आग लगा देते हैं, किसी को विष दे देते हैं अथवा गांवों या व्यापारियों की टोलियों को लूट लेते हैं, उन्हें मरने के पश्चात सारमेयादन नामक नरक में वज्र की सी दाड़ोंवाले सात सौ बीस यमदूत कुत्ते बनकर बड़े वेग से काटने लगते हैं। इस लोक में जो पुरुष किसी की झूठी गवाही देने में, व्यापार में अथवा दान के समय किसी भी तरह झूठ बोलता है, वह मरने पर आधार शून्य अवीचिमान नरक में पड़ता है। वहाँ उसे सौ योजन ऊँचे पहाड़ के शिखर से नीचे को सिर करके गिराया जाता है। उस नरक की पत्थर की भूमि जल के समान जान पड़ती है। इसीलिये इसका नाम अवीचमान है। वहाँ गिराये जाने से उसके शरीर के टुकडे टुकड़े हो जाने पर भी प्राण नहीं निकलते, इसलिये इसे बार बार ऊपर से जाकर पटकेा जाता है। जो ब्राह्मण या ब्राह्मणी अथवा व्रत में स्थित और कोई भी प्रमादवश मधपान करता है तथा जो क्षत्रिय या वैश्य सोमपान करता है, उन्हें यमदूत अयपान नाम के नरक में ले जाते हैं और उनकी छाती पर पैर रखकर उनके मुँह में आग से गलाया हुआ लोहा डालते हैं।

जो पुरुष इस लोक में निम्न श्रेणी के होकर भी अपने को बड़ा मानने के कारण जन्म, तप, विघा, आचार, वर्ण या आश्रम में अपने से बड़ों का विशेष सत्कार नहीं करता, वह जीता हुआ भी मरे के समान है। उसे मरने पर ज्ञारकदर्म नाम के नरक में नीचे को सिर करके गिराया जाता है और वहाँ उसे अनन्त पीड़ाएँ भोगनी पड़ती है। इस लोक में जो व्यक्ति अपने को बड़ा धनवान समझकर अभिमानवश सबको टेड़ी नजर से देखता है और सभी पर संदेह रखता है, धन के व्यय और नाश की चिन्ता से जिसके ह्र्दय और मुँह सूखे रहते हैं, अतः तनिक भी चैन न मानकर जो यक्ष के समान धन की रक्षा में ही लगा रहता है तथा पैसा पैदा करने, बढ़ाने और बचाने में जो तरह तरह के पाप करता है, वह नराधम मरने पर सूची मुख नरक में गिरता है। वहाँ उस अर्थपिशाच पापात्मा के सारे अंगों को यमराज के दूत दर्जियों के समान सुई धागे से सीते हैं।

राजन! यमलोक में इसी प्रकार के सैकड़ों हजारों नरक हैं। जिनमें जिनका यहाँ उल्लेख हुआ है और जिनके विषय में कुछ नहीं कहा गया, उन सभी में सब अधर्मपरायण जीव अपने कर्मो् के अनुसार बारी बारी से जाते हैं। इसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष स्वगार्दि में जाते हैं। इस प्रकार नरक और स्वर्ग के भोग से जब इनके अधिकांश पाप और पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब बाकी बचे हुए पुण्यापरुप कर्मो् को लेकर ये फिर इसी लोक में जन्म लेने के लिये लौट आते हैं। इन धर्म और अधर्म दोनों से विलक्षण जो निवृत्ति मार्ग है, उसका तो पहले द्वितीय स्कन्ध में ही वर्णन हो चुका है। पुराणों में जिसका चौदह भुवनके रूप में वर्णन किया गया है, वह ब्रहामाण्ड कोश इतना ही है। यह साक्षात परम पुरुष श्री नारायण का अपनी माया के गुणों से युक्त अत्यन्त स्थूल स्वरूप है। इसका वर्णन मैंने तुम्हें सुना दिया। परमात्मा भगवान का उपनिषदों में वणिर्त निगुर्ण स्वरूप यघपि मन बुद्दि श्रद्धा और भक्ति के कारण शुद्द हो जाती है और वह उस सूक्ष्म रूप का भी अनुभव कर सकता है।