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Friday, August 19, 2011

KaLika Astak


कालिकाष्टक (शंकराचार्य विरचितम)



* ध्यान *
गलद्रक्त मुण्डावली कण्ठमाला 
माहाघोर रावा सुदँष्ट्रा कराला।
विवस्त्रा श्मशनालया मुक्तकेशी
महाकाल कामा कुला कालिकेयम।।१।। 

भुजेवामयुग्मे शिरोसिं दधाना
वरं दक्षयुग्मेभयं वै तथैव । 
सुमध्यापी तुंगस्थना भारनम्रा
लसद्रक्त सृक्कद्वया सुस्मितास्या।।२।। 

शवद्वन्दकर्णा वतंसा सुकेशी
लसत्प्रेतपाणीं प्रयुक्तैक कांची। 
शवाकारमँचाधीरुढा शिवाभि-
श्चतुर्दिक्षु शब्दयामानाभिरेजे।।३।। 

      **स्तुती** 
विरन्च्यादिदेवास्त्रयते गुणात्रिम्
समाराध्य कालीँ प्रधाना बवुभु। 
अनादिं सुरादीं मखादिं भवादिं 
स्वरूपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।१।।

जगन्मोहिनियम् तु वाग्वादिनियम्
सुह्रिद्पोषिणी शत्रु संहारणियम्।  
वचस्तम्भनियम् किमुच्चाटनियम्
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।२।।

इयं स्वर्गदात्री पुन: कल्पवल्ली 
मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात।
तथाते कृतार्था भवन्तीति नित्यम
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।३।। 

सुरापानमत्ता शुभक्तानुरक्ता 
लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवस्ते। 
जपध्यान् पूजासुधाधौतपंका 
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।४।। 

चिदानन्दकन्दं हसन्मन्दमन्दं 
शरच्चन्द्र कोटीप्रभापुन्ज बिन्वम्। 
मुनीनां कवीनां हृदि ध्योतयन्तं 
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।५।।        

माहामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा
कदचिद्विचित्रा कृतिर्योगमाया। 
न वाला न वृद्धा न कामातुरापि 
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।६।। 

क्षमास्वपराधं माहागुप्तभावं 
मायालोकमध्ये प्रकाशीकृतं यत्। 
तव ध्यानपुतेन चापल्यभावात्
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।७।। 

यदी ध्यान युक्तं पठेध्यो मनुष्य 
स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च। 
गृहे चाष्टसिद्धिर्मृते चापि मुक्ती-
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।८।। 

A tribute to Mother..Jay Mahakali Jay Jagat Janani Bhagavati Mata