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Monday, September 29, 2014

shree arjun krit durga stavan श्री अर्जुन कृत श्रीदुर्गा स्तवन






श्री अर्जुन-कृत श्रीदुर्गा-स्तवन

विनियोग - ॐ अस्य श्रीभगवती दुर्गा स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिः, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदुर्गा देवता, ह्रीं बीजं, ऐं शक्ति, श्रीं कीलकं, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यास-


श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिभ्यो नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीदुर्गा देवतायै नमः हृदि, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, ऐं शक्त्यै नमः पादयो, श्रीं कीलकाय नमः नाभौ, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।

कर न्यास - ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्याम नमः, ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ ह्रूं मध्यमाभ्याम वषट्, ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं, ॐ ह्रौं कनिष्ठाभ्यां वौष्ट्, ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां फट्।

अंग-न्यास -ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसें स्वाहा, ॐ ह्रूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं कवचायं हुं, ॐ ह्रौं नैत्र-त्रयाय वौष्ट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।



ध्यान -

सिंहस्था शशि-शेखरा मरकत-प्रख्या चतुर्भिर्भुजैः,

शँख चक्र-धनुः-शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता।

आमुक्तांगद-हार-कंकण-रणत्-कांची-क्वणन् नूपुरा,

दुर्गा दुर्गति-हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्-कुण्डला।।



मानस पूजन - ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः यं वाय्वात्मकं धूपं घ्रापयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः रं वहृ्यात्मकं दीपं दर्शयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि।



श्रीअर्जुन उवाच -

नमस्ते सिद्ध-सेनानि, आर्ये मन्दर-वासिनी,

कुमारी कालि कापालि, कपिले कृष्ण-पिंगले।।1।।

भद्र-कालि! नमस्तुभ्यं, महाकालि नमोऽस्तुते।

चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं, तारिणि वर-वर्णिनि।।2।।

कात्यायनि महा-भागे, करालि विजये जये,

शिखि पिच्छ-ध्वज-धरे, नानाभरण-भूषिते।।3।।

अटूट-शूल-प्रहरणे, खड्ग-खेटक-धारिणे,

गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे, नन्द-गोप-कुलोद्भवे।।4।।

महिषासृक्-प्रिये नित्यं, कौशिकि पीत-वासिनि,

अट्टहासे कोक-मुखे, नमस्तेऽस्तु रण-प्रिये।।5।।

उमे शाकम्भरि श्वेते, कृष्णे कैटभ-नाशिनि,

हिरण्याक्षि विरूपाक्षि, सुधू्राप्ति नमोऽस्तु ते।।6।।

वेद-श्रुति-महा-पुण्ये, ब्रह्मण्ये जात-वेदसि,

जम्बू-कटक-चैत्येषु, नित्यं सन्निहितालये।।7।।

त्वं ब्रह्म-विद्यानां, महा-निद्रा च देहिनाम्।

स्कन्ध-मातर्भगवति, दुर्गे कान्तार-वासिनि।।8।।

स्वाहाकारः स्वधा चैव, कला काष्ठा सरस्वती।

सावित्री वेद-माता च, तथा वेदान्त उच्यते।।9।।

स्तुतासि त्वं महा-देवि विशुद्धेनान्तरात्मा।

जयो भवतु मे नित्यं, त्वत्-प्रसादाद् रणाजिरे।।10।।

कान्तार-भय-दुर्गेषु, भक्तानां चालयेषु च।

नित्यं वससि पाताले, युद्धे जयसि दानवान्।।11।।

त्वं जम्भिनी मोहिनी च, माया ह्रीः श्रीस्तथैव च।

सन्ध्या प्रभावती चैव, सावित्री जननी तथा।।12।।

तुष्टिः पुष्टिर्धृतिदीप्तिश्चन्द्रादित्य-विवर्धनी।

भूतिर्भूति-मतां संख्ये, वीक्ष्यसे सिद्ध-चारणैः।।13।।

।। फल-श्रुति ।।

यः इदं पठते स्तोत्रं, कल्यं उत्थाय मानवः।

यक्ष-रक्षः-पिशाचेभ्यो, न भयं विद्यते सदा।।1।।

न चापि रिपवस्तेभ्यः, सर्पाद्या ये च दंष्ट्रिणः।

न भयं विद्यते तस्य, सदा राज-कुलादपि।।2।।

विवादे जयमाप्नोति, बद्धो मुच्येत बन्धनात्।

दुर्गं तरति चावश्यं, तथा चोरैर्विमुच्यते।।3।।

संग्रामे विजयेन्नित्यं, लक्ष्मीं प्राप्न्नोति केवलाम्।

आरोग्य-बल-सम्पन्नो, जीवेद् वर्ष-शतं तथा।।4।।



प्रयोग विधि -

उक्त स्तोत्र ‘महाभारत’ के ‘भीष्म पर्व’ से उद्धृत है।

१॰ इसकी साधना भगवती के मन्दिर अथवा घर में एकान्त में करनी चाहिये। ‘घी’ के दीपक में बत्ती के लिये अपनी नाप के बराबर रूई के सूत को 5 बार मोड़कर बटे तथा बटी हुई बत्ती को कुंकुम से रंगकर भगवती के सामने दीपक जलायें।

नवरात्र या सर्व सिद्धि योग से पाठ का प्रारम्भ करें कुल 9 या 21 दिन पाठ करें तथा प्रतिदिन 9 या 21 बार आवृत्ति करें। पाठ के बाद हवन करें। लाल वस्त्र तथा आसन प्रशस्त है। साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन करें।

इससे सभी प्रकार की बाधाएं समाप्त होती है तथा दरिद्रता का नाश होता है। शासकीय संकट, शत्रु बाधा की समाप्ति के लिये अनुभूत सिद्ध प्रयोग है।



२॰ नित्य दुर्गा-पूजा (सप्तशती-पाठ) के बाद उक्त स्तव के ३१ पाठ १ महिने तक किए जाएँ। या

३॰ नवरात्र काल में १०८ पाठ नित्य किए जाएँ, तो उक्त “दुर्गा-स्तवन” सिद्ध हो जाता है।

Friday, May 2, 2014

Nikileshhwaranand Eulogy निखिलेश्वरानंद स्तवन


||| निखिलेश्वरानंद स्तवन |||२३ ||


त्वहं प्रेम्तरूपम परम मधुर श्रेय इति च
न शक्यत्वं ज्ञानं श्रिय प्रिय इति र्वें श्रियमहो |
त्व संसर्ग देह भवत परमोच्च सुख वदें
र्द्वे किन्नं स्वर्गं च सुर वदन प्या तृप्त इति न: ||

हे प्रभु! सिद्धाश्रम के योगियों ने जो आप को "प्रेममय" शब्द से संबोधित किया है, वह वास्तव में ही सत्य है क्योंकि आपकासारा शरीर प्रेममय है, आपने पने जीवन में प्रेम को ही बांटा है और पृथ्वी को ज्यादा प्रसन्न, ज्यादा आनन्द युक्त बनाने काप्रयास किया है | जब हम उच्चकोटि के संन्यासी आपके विशुद्ध और निश्छल प्रेम को भली-भांति नहीं समझ सकते, फिरसामान्य सांसारिक व्यक्ति यदि उस प्रेम को वासना या तुच्छता समझ लें, तो इसमें उनका क्या दोष? क्युकी जो स्वयं जैसाहोता है, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता है |


आप द्वारा प्रेम पाना और आपकी सामीप्यता प्राप्त हो जाना, तो कई-कई जन्मो का सौभाग्य है | वास्तव में ही वे धन्य हैंजिन्होंने आपके मन और शरीर की सामीप्यता प्राप्त की है |


सिद्धाश्रम और देव लोक की अप्सराएं, किन्नरियां, गन्धर्व और स्वयं ऋषि भी आपके शरीर का स्पर्श, सामीप्यता, साहचर्यऔर संसर्ग-सुख प्राप्त करने के लिए अभिलषित रहते हैं, फिर सामान्य सांसारिक व्यक्ति यदि ऐसा चिन्तन रखे, तो इसमेंआश्चर्य क्या?


प्रेम क्या है? यह आपके शरीर से ही पहिचाना जा सकता है | आनन्द क्या है? यह आपको देख कर ही अनुभव किया जा सकताहै | जीवन्तता क्या है? यह आपका स्पर्श करने पर ही अनुभव की जा सकती है | आपका प्रत्येक रोम प्रेममय है, आपके नेत्र,आपकी चितवन, आपकी मुस्कराहट सब कुछ प्रेममय है, ऐसा लगता है कि ये आंखें चकोर की तरह आपको निहारती हे रहें,आपके रूप-रस का पान करती ही रहें, और पूरा जीवन इसी प्रकार से व्यतीत हो जाय |


वास्तव में ही यदि आपको "निखिलेश्वरानंद" न कह कर प्रेममय कहें, आनन्दमय कहें, सत चित् स्वरुप कहें, पूर्णमय कहें"पूर्णमद: पूर्णमिदं" कहें और प्रेम की कला में पारंगत कहें, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि आप स्वयं प्रेम के साक्षात्अवतार हैं | आपके इसी प्रेममय स्वरुप को मैं अत्यन्त आनन्द के साथ प्रणाम करता हूं || २३ ||

Dr. Narayan Dutt Shrimali Ji