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Monday, March 2, 2015

यह ललकार हैं अब भी नहीं जागोगे तो कब जागोगे The challenge now, then when wake up, not even wake up ?



यह ललकार हैं अब भी नहीं जागोगे तो कब जागोगे
बहुत मुश्किल हैं, अपने आपकी जज्ब करना और बढ़ते हुए पारे को रोक कर नियंत्रित करना, मैं ब्राह्मण पुत्र हूँ और विनम्रतापूर्वक मुझे गर्व हैं, कि मेरी धमनियों में वशिष्ठ, विश्वामित्र, कणाद और पुलत्स्य जैसे ऋषि मुदगल का रक्त बह रहा हैं, मंत्रों और तंत्रों के चरणों में मैंने अपनी शानदार जवानी को समर्पित कर दिया हैं. जो उम्र मौज, शौक, आनंद और प्रसन्नता की होती हैं, वह उम्र मैंने हिमालय की कंटकाकीर्ण पगडंडियों पर विचरण करते हुए बितायी हैं, जो उम्र मखमली गद्दों पर सोने की होती हैं, उस उम्र में मैं अपनी पीठ के नीचे उबड़ खाबड़ पहाडों की चट्टानें रख कर सोया हूँ और जो उम्र नवोढ़ा दर्शन में व्यतीत होती हैं, वह उम्र मैंने जर्जर वृद्ध और सूखे हुए सन्यासियों के चरणों में व्यतीत की हैं. पर मुझे इस बात का अफ़सोस नहीं हैं, आज जब इस जीवन यात्रा के पथ पर एक क्षण रूक कर पीछे की और मुड़कर नापे हुए, रस्ते को देखता हूँ तो मुझे अपने आप पर गर्व होता हैं, कि मैंने उस रास्ते पर पैर बढाये हैं, जिस पर कंकर पत्थर कांटे और शूलों के अलावा कुछ भी नहीं हैं. मैं उन हिंसक सामाजिक भेड़ियों के बीच में से बढ़ता हुआ इस जगह तक पहुँचा हूँ जहाँ तक पहुचने के लिए जिंदगी को दांव पर लगाना पड़ता हैं, बिना जिजीविषा के यह रास्ता पार करना सम्भव नहीं. यहाँ पग-पग पर आलोचना, झूठे आक्षेप और प्रताड़ना के अलावा कुछ भी नहीं. ये दिखावटी भेड़िये हैं और इनके दांतों में निंदा रुपी मांस के टुकड़े अटके पड़े हैं, इस मांसों के टुकडों को कुतरने और इन हड्डियों को चबाने में इन्होने अपनी जिंदगी की पूर्णता समझी हैं, जिसका जैसा आत्म होता हैं, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता हैं, सैकड़ों वर्षों से इनका प्रयत्न यही रहा हैं कि रास्ते पर बढ़ने वाले पुरूष को खिंच कर अपनी जमात में मिला लिया जाए, उन्हें भी वही सब कुछ करने का ज्ञान दिया जायें, जो वह करते आ रहे हैं. और मैंने जिंदगी के इस पड़ाव पर एक क्षण के लिए ठहर कर चिंतन किया हैं, तो मेरी झोली में उपलब्धियां ही उपलब्धियां हैं. जब समाज मुग़लों और अंग्रेजों की दासता के नीचे छटपटा रहा था, तब मैंने स्वतन्त्रता के दीपक को जितना भी हो सकें जलाये रखने और अंधड़ तूफ़ान से बचाए रखने का प्रयत्न किया हैं, मैंने गुलामी के अन्धकार को अपनी नंगी आंखों से देखा हैं, अपनी जवानी में मैंने भारत-पाकिस्तान के समय मनुष्य की पाशविकता को अनुभव किया हैं, आधी रात को उन धर्मान्धियों के द्वारा मारे गए मनुष्यों की लाशों पर पाँव रखते हुए बाहर आने के लिए प्रयत्न किया हैं, मैंने वह सब अपनी इन आंखों से देखा हैं, उस दर्द को भोगा हैं, मैंने अपने देवता स्वरुप मित्रों को इन हत्यारों के हाथों कुचलते हुए अनुभव किया हैं. मैं इस दर्द का साक्षी हूँ, और मेरे सारे शरीर के दर्द अभी भी कभी-कभी कचोट मार लेता हैं. और मैंने उन भगवे कपड़े पहिने हुए सन्यासियों को देखा हैं, जो धार्मिक स्थानों पर या जंगलों में चमकीले कपड़े पहिने हुए अपने आपको पुजवाते हुए, ख़ुद के ही ललाट पर सिंदूर लगा कर बैठे हुए देखा हैं. मैंने इनके अन्दर झांक कर अनुभव किया हैं कि केवल ढोंग, पाखंड और छल के अलावा इसके पास कोई पूँजी नहीं हैं, भारतीय आप्त वाणी को भुनाते हुए ये गली कुचों में भटकने वाले भिक्षुओं से भी गए गुजरे हैं, और इनके छल, इनके झूठ और इनके पाखंड के दर्द को मैंने जहर की तरह गले के नीचे उतारा हैं, और भोगा हैं. बड़े-बड़े आश्रमों के ठेठ अन्दर अपने आपको छिपा कर कभी-कभी दर्शन देने वाले इन हथकण्डे बाज सन्यासियों को भी देखा हैं, जिनके पास थोथी बाजीगरी और लफ्फाजी का व्यापार हैं, और यह सब देखकर मेरे शरीर का पारा निश्चित रूप से इतना अधिक बढ़ जाता हैं कि कई बार मुझे अपने आप पर शर्म आने लगती थी कि मैं इन लोगों जैसे ही कपडे पहने हुए हूँ. पर इस अन्धकार में भी मुझे पच्चीस हज़ार वर्ष पूर्व पैदा हुए, मुदगल ऋषि के शब्द कानों में बराबर झंकृत हो रहे थे कि अँधेरा पीने वाला ही प्रकाश दे सकता हैं और जो अपने गले में जहर उतरने की हिम्मत रखता हैं, वही नीलकंठ कहला सकता हैं और मैंने इस जहर को हजार-हजार बार पिया हैं, इस अंधेरे में हज़ार-हज़ार बार ठोकरे खायी हैं, पैर लहुलुहान हुए और मैं उस ऋषि की आप्त वाणी की डोर के सहारे बराबर बढ़ता रहा हूँ, कि यदि सूर्य उगने तक मेरी जिंदगी का यह दीपक जलता रहा, तो मैं अवश्य ही उतनी रौशनी तो करता ही रहूँगा, जितनी कि घटाटोप अन्धकार में भारत वर्ष की आँखों को दिखाई दे सकने वाली सामर्थ्य दी जा सकें. और इस अंधकार का पार करते-करते मेरे जिंदगी के सुनहरे दिन समाप्त हो गए, यौवन का आनद पत्थरों से ठोकरे खा खा कर विलुप्त हो गया. आंखों के सुनहरे स्वप्न जंगलों की झड़बेरियों में उलझ कर रह गए, परिवार छुट गया, घर बार छुट गया, जवानी और मस्ती छुट गई, पर इन सबसे परे मुझे वह सब कुछ प्राप्त हुआ, जो हमारे पूर्वजों की धरोहर हैं, उन पूर्वजों ने उन कणाद, पुलस्त्य, अत्रि और मुदगल ने जो कुछ थाती हमें सौंपी थी, हमारे कायर पूर्वजों ने उस थाती को भोज पत्रों और ताड़ पत्रों में छुपा निश्चिंत हो गए थे कि हमने फ़र्ज़ पूरा कर लिया, पर आने वाली पीढियों ने उन लोगों को न माफ़ करने वाली चुन-चुन कर ऐसी गालियाँ दी कि वे पीढियां ही काल के गर्भ में समाप्त हो गई, उनके नाम का भी अस्तित्व नहीं रहा, निश्चय ही शंकराचार्य और गोरखनाथ ने उस दीपक में अपने शरीर को तेल की तरह बना कर डाला और उस दीपक को बचाए रखा, उन्होंने अपनी जिंदगी और जवानी को दांव पर लगाकर उस बुझते हुए दीपक को संरक्षण देने का कार्य किया, और फ़िर कुछ उजाला फैला, कुछ समय के लिए फ़िर कुछ रोशनी हुयी, कुछ क्षणों के लिए ही सही, पर फ़िर कुछ साफ-साफ़ दिखाई देने लगा. पर बाद में एक ही झपट्टे में वह रौशनी मद्धिम पड़ गई. फ़िर हमारी पीढ़ियाँ शेर और शायरी में खो गई फ़िर हमारी जवानी घुन्घुरुओं की रुनझुन में सार्थकता अनुभव करने लगी और फ़िर उस दीपक पर अन्धकार के इतने मोटे-मोटे परदे टांग दिए गए कि दीपक का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया. हमारी पीढी को तो यह एहसास ही नहीं रहा कि हमारे पूर्वजों में वशिष्ठ और विश्वामित्र थे. उन्हें गौत्र शब्द का उच्चारण ही याद नहीं रहा, केवल विवाह के समय ब्राह्मण उनके गौत्र का उच्चारण कर भूले भटके उन ऋषियों में से एक का नाम उच्चारण कर लेता, और हम अजनबियों की तरह चौक उठते कि ग़ालिब, मीर, मिल्टन, और शैक्सपियर जैसे परिचित नामों में इस ब्राह्मण ने यह किस नाम का उच्चारण कर दिया, और फिर अपने आपको समझाकर गौरवान्वित हो जाते हैं कि यह एक जल्दी कराने वाले ब्राह्मण के मंत्रों का ही कोई एक भाग होगा. और पूरे पच्चीस हज़ार वर्षों में अंग्रेजो ने पहली बार हमारे खून को टेक्नोलॉजी के नाम पर ठंडा कर दिया, पश्चिम के ज्ञान ने हम को अपने ही देश में अजनबी बना दिया. हमें जेम्स, स्टुअर्ट, विक्टोरिया जैसे नाम ज्यादा परिचित अनुभव लगे, इंग्लैंड का इतिहास हमारी जिंदगी के ज्यादा निकट रहा और हमारे पाँव राजमार्ग से परे हट कर जिस अस्पष्ट पगडण्डी पर चढ़ रहे थे, वह पगडण्डी भी पैरों से छीन गई, और हम उस उजाड़ जंगल में आगे बढ़ने में ही गौरवशाली अनुभव करने लगे, जिसका कोई अंत नहीं था. और यह सब कुछ हमारे रक्त में मिल गया, हमारे चेहरे बदल गए, हमारी आंखों में अंग्रेजियत झलकने लगी, सिर पर हैट और गले में टाई बाँध कर शीशे में अपने आपको देखने का अभ्यास करने लगे और जब आँखें दीवारों पर टंगे माँ बाप या पूर्वजों के चित्रों पर अटकती तो विश्वास ना होता था, कि हम इनकी संतान हैं, मन के किसी कोने में आवाज़ उठती थी कि इस ड्राइंग रूम में इन फूहड़ और असभ्य लोगों के चित्र टांगना उचित नहीं और वे चित्र उठाकर फेंक देने में मन के किसी कोने में संतोष उभरता, कि हम बहुत कुछ हैं. और इसी खून ने हमें कुछ महाज्ञान भी दिया और यह महाज्ञान था, पूजा पाठ क्या होता हैं, देवताओं के दर्शन करना दकियानूसी हैं, मंत्र तंत्र ढोंग और पाखण्ड हैं, जब इनके कथाकथित माँ बाप अंग्रेज चर्च में घुटने टेक कर ईसा को स्मरण कर रहे होते तब हम घर में पड़ी हुयी देवताओं की मूर्तियों को पिछवाडे घूढ़े के ढेर पर फेंकते होते, जब वे पादरियों के वचनों को घूँट-घूँट पी रहे होते तब हम ब्राहमणों और सन्यासियों का मजाक उड़कर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहे होते, जब वे बाईबिल को अपने सिर से लगा रहे होते, तब हम गीता और रामायण को ठोकर मारकर फेंकने में सभ्यता की पूर्णता अनुभव कर रहे होते, यह हमारी पीढ़ी का इतिहास हैं, और हमने यही कुछ प्राप्त किया हैं, इन सबसे मेरे कलेजे पर हजारों फफोले पड़े हैं, मेरी मृत्यु के बाद चिता पर आकर कोई भी मेरे नंगे सीने को उधेड़ कर देख सकता हैं, कि उस पर इतने अधिक जख्म लगे हैं, कि अब कोई नया जख्म लगने के लिए जगह बाकी ही नहीं बची हैं. और ऐसे ही कायर और गुलाम माँ बाप की संतानों ने दो चार शब्द रट रखे हैं, कि पत्रिका को साईंटिफीक तरीके से निकलना चाहिए, मंत्रों तंत्रों में कुछ नई टेकनिक लेनी चाहिए, योग और मंत्रों का साईंटिफीक बेस प्रस्तुत करना चाहिए, मैं तो कह रहा हूँ कि मंत्रों तंत्रों को ही नहीं अपने माँ बाप के पुराने दकियानूसी नामों को भी बदल देना चाहिए, अपनी वृद्धा माँ को भी साईंटिफीक रूप सिखाना चाहिए, अपने वयोवृद्ध पिता को भी नई टेक्निक देनी चाहिए, क्योंकि बिना साईंटिफीक बेस के उनका आधार ही क्या हैं? और जब इनके ये शब्द सुनता हु तो मुझे दो हज़ार वर्ष पूर्व पैदा हुए ईसा को सूली पर चढ़ाते समय उनके कहे वाक्य याद आ जाते हैं, कि :- “हे भगवान्! इन्हें माफ़ करना, क्योंकि ये जानते नहीं कि ये क्या कह रहे हैं.” सुश्रुत ने एक बार कहा था, कि सूखा और टूटा हुआ पत्ता हलकी हवा में उसी तरफ़ उड़ने लगता हैं, जिधर हवा बहती हैं, लेकिन गहरी जड़ों वाला वटवृक्ष तेज अंधड़ में भी एक से दूसरी तरफ़ झुकता हुआ भी उखाड़ता नहीं, जिनके पास अपने जड़े नहीं होती, वे केवल ओपन माइंडेड ही हो सकते हैं, इसके अलावा होंगे भी क्या? आप पश्चिम के किसी भी विद्वान् से पूछ लीजिये तो वह भी बता देगा कि हमारी विद्यायें और हमारी तकनीक हमारी स्वयं की जीवन पद्धति से निकली हैं, और उनके द्वारा ही हम अपनी और समाज की समस्याओं का समाधान निकाल सकते हैं, अब कोई लल्लू भी आपको यह बता देगा कि भारतीय जीवन पद्धति अमेरिका या यूरोप की जीवन पद्धति से अलग हैं, यूरोपीय विद्याओं और तकनीक में ऐसा सर्वकालिक कुछ भी नहीं हैं, जो किसी भी परिस्थिति में सच हो, जबकि भारतीय चिंतन और दर्शन बीस हज़ार वर्ष पहले भी उतना ही सच था, जितना आज हैं, यहाँ पर मुझे पश्चिम के वैज्ञानिक सुमाकर की उक्ति याद आती हैं, जो उसने किसी भारतीय को कही थी :- “हे वत्स! पश्चिम के मोडल और टेक्नोलॉजी के पीछे पड़े हुए तुम लोगों पर इसीलिए तरस आता हैं, कि तुम अपनी प्रतिभा, शक्ति, समय और पैसा उन समस्याओं के समाधान में बरबाद कर रहे हो जो तुम्हारे समाज की नहीं, मेरे समाज की हैं.” जब आप अपनी चाबी किसी अनजान ताले में लगा कर उसे खोलने की कोशिश करेंगे तो आप ताला तो बिगडेगा ही, उसके साथ ही साथ कुंजी भी, हमने अभी तक यही किया हैं, हमने अपने जीवन और समाज के बंद पड़े तालों को उन चाबियों से खोलने की कोशिश की हैं, जो उनके लिए बनी ही नहीं हैं और इसीलिए हम पिछले सैकड़ों वर्षों से अपने तालों और चाबियों को ख़राब ही कर रहे हैं. हम हैं, और बहुत कुछ हैं, इसका प्रमाण पत्र लेने के लिए किसी दफ्तर में जाने की जरुरत नहीं, हम मृत्युंजयी संस्कृति के देश के बाशिंदे हैं, हमें बाहर से उच्च तकनीक को गले नहीं लगाना हैं, अपितु अन्दर से अपने सत्य का साक्षात्कार करना हैं, और यह हम स्वयं होकर ही कर सकते हैं, अपने मंत्रों के मध्यम से ही अपने योग और दर्शन के द्वारा ही अपनी जिंदगी को पूर्णता दे सकते हैं, हम विविध साधनाओं के द्वारा ही शरीर की धमनियों में बहते हुए, अशुद्ध रक्त को शुद्ध कर सकते हैं, और यह शुद्ध रक्त ही हमारे चेहरे पर पुनः भारतीयता दे सकेगा, हमारी आँखें वापिस अपने आपको पहिचानने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकेगी, और इन विशिष्ट साधनाओं में भाग लेकर ही हम उस आत्म से साक्षात्कार कर सकेंगे जो हमारा स्वयं का आत्म हैं. और जब ऐसा हो सकेगा, तभी हम अपने आपको पहिचान सकेंगे, तभी हम कूड़े के ढेर पर पड़े हुए अपने माँ बाप के चित्रों को पौंछ कर ड्राइंग रूम में लगाने में गौरव अनुभव कर सकेंगे, तभी हम अपने आत्म को जगाकर इष्ट के साक्षात् जाज्वल्यमान दर्शन कर सकेंगे, जो कि हमारे जीवन की पूर्णता हैं, और तभी मैं एहसास कर सकूँगा कि मेरे पांवों में गडे हुए लांखों कांटे और सीने में उठे हुए फफौले राहत दे रहे हैं, कि मुझे विश्वास हैं ऐसा होगा ही, और इसी सत्य को प्रदान करने की कामना लिए हुए, मैं अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हूँ, और बराबर जीवन की अन्तिम साँस तक अग्रसर बना रहूँगा.

-परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज. (सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी)

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान अप्रैल 2001

Friday, May 2, 2014

changing the thoughts and personality

How can we deal with controlling the mind and changing the thoughts and personality traits? Most people today feel that it's human to think both negatively and positively, everyone has their weaknesses etc, why should we be 'goody- goody' etc. but they do not seem to understand that thinking negatively is firstly harmful to us and then it affects people around us. We may be ordinary human beings, but that does not mean we cannot be perfect in our thinking, in our values and way of living. What distinguishes the normal human from people like Gandhiji, or Florence Nightingale or Einstein or Mother Teresa - they all did not think ordinarily, their thoughts were elevated and pure. Everyone can control their thoughts, if they wish. Thoughts are the most powerful asset human beings have, but it is the least understood. We value science so much today, but we forget that it was the human mind that created that science. Ideas are changed into reality, which means those ideas and thoughts are greater than all the scientific inventions. It is important to first understand what the soul or spirit is. The body is made of 5 elements but what runs the body? Our thoughts, our decision-making power, our personality - are all these things part of the body? They cannot be because they are not physical things. It is impossible for scientists to analyse thoughts, but when those thoughts are used to make actions, then we can see them. It is just like electricity - we cannot see it will our naked eye, but when it changes to another form like light or heat then we can experience it. Similarly, the soul runs the body, but we cannot see with the physical eyes, because it is divine energy, a point of pure light. But it is so powerful that it can control the entire body. This soul has 3 main faculties - the mind (where thoughts are generated), the intellect (the decision -making power) and the personality traits (or sanskaars, as we say in Hindi). All these three things work in collaboration and influence each other. When we human beings first came on earth, we were pure, good, disciplined individuals - we were soul-conscious, meaning the bodily desires and bad vices were not present. But with time, the soul lost its spiritual energy and became weak. Then the vices like ego, anger, lust, attachment, greed entered and took over. You may ask why we have negative thoughts - the intellect has become weak and cannot control the thoughts that enter the mind. Even our sanskaars have become impure, we get angry easily, we say things we do not want to, we do things that are not nice. The environment also affects our thoughts - the books we read, our friends, television, even food. Most people will not agree with this, but the method of making the food, what thoughts did the cook have while cooking, while eating how was our mood etc.etc. EVERYTHING MATTERS! But, do not feel disappointed, there is a remedy. The entire world is going through a lot of suffering and it is because we have lost our spiritual energy. Only God can come and teach us about spirituality and how to become pure beings again. Through meditation we can learn about 1. The Self, enables you to be detached from physical factors and their limitations. 2. Knowing God, enables you to create a deep link of love and draw into yourself all attributes, virtues and powers from the Supreme Source. 3. Understanding the deep law of cause and effect (Karma), motivates you to settle debts of the past and perform elevated actions now. Total surrender to totality, to Supreme is the Ultimate realization. Realization in every deed (karm) can lead you to that total bliss. It is not like a lightening what will happen to you suddenly. First learn to surrender little by little. Learn to surrender to human humanity. First learn it, bring perfection into it, Then you will be able to surrender to that `Param' - which is the source of all Paramanand - Param + Anand. Spirituality does not mean that you have got the license to play according to your mind games. Spirituality is given to you to get connected to higher self And play the game of life According to natural self - real self - not your mind create self – Ego This is Truth.

16 Sadhanas used by Radha to completely hypnotize Krishana

The article details 16 Sadhanas used by Radha to completely 
hypnotize Krishana :

One needs to chant a total of 666 Rosaries for all these prayogs. 
However, you may achieve success with just 10% of these. You may do 
equivalent of 5 malas of each Prayog during Eclipse time to achieve 
success. If you do not have Sadhana materials, then you may use 
yellow coloured rice (mixed with turmeric powder (haldi)) , and offer 
each rice grain onto Gurudev's photograph with each Mantra chanting.


1. Mohini Prayog Mantra:

|| OM KLEEM MOHINI SARV JAN MOHAYE MOHAYE HOOM ||

Sadhana Materials : Mohini Vashikaran Yantra, Raktambh Rosary Mantra 

Count : 21 Malas X 3 days = 63 malas


2. Priyakarshan Prayog Mantra:

|| OM KLEEM VAJRESHWARI MAM PRIYA AAKARSHYA AAKARSHYA PHAT ||

Sadhana Materials : Priyakarshan Yantra, Priyakarshan Gutika, 
Priyanku Rosary

Mantra Count : 7 Malas X 5 days = 35 malas


3. Chandralalita Prayog Mantra:

|| OM CHANDRALALITAYE AMUK VASHYAMAANAYA SWAHA ||

Sadhana Materials : Chandra Shodash Kala Yantra, Chandra Lalita Rosary

Mantra Count : 11 Malas X 5 days = 55 malas


4. Anang Prayog Mantra:

|| OM HROUM ANANG DEVAYE TRELOKAYE SAMMOHAYE HROUM NAMAH ||

Sadhana Materials : Divya Anang MahaYantra, Shukra Phal, Pranaye 
Rosary

Mantra Count : 11 Malas X 6 days = 66 malas


5. Shukra Tejas Prayog Mantra:

|| OM SHAM SHUKRAYE KAAMDEV RATYE PHAT ||

Sadhana Materials : Shukra Tejas Yantra, Soundarya Rosary

Mantra Count : 6 Malas X 7 days = 42 malas


6. Agni Madan Prayog Mantra:

|| OM AGNISCHEITANAAYE NAMAH ||

Sadhana Materials : Agni Madan Yantra, Agnisaffuling Rosary

Mantra Count : 11 Malas X 4 days = 44 malas


7. Indu Prayog Mantra:

|| OM HREEM MOHAYE SAMMOHAYE OM ||

Sadhana Materials : Indu Sammohaye Yantra, Vidyut Mohini Rosary

Mantra Count : 7 Malas X 5 days = 35 malas


8. Rati Vashya Prayog Mantra:

|| OM AAKARSHAN SAMMOHAYE HREEM KLEEM OM ||

Sadhana Materials : Rati Vashya Yantra, Vashikaran Rosary

Mantra Count : 11 Malas X 3 days = 33 malas


9. Koti Kandarp Laavanaye Prayog Mantra:

|| OM HREEM HREEM KANDARP ANANGAAYE HREEM HREEM OM ||

Sadhana Materials : Kandarp Laavanaye Yantra, Anangaast, Hakeek Rosary

Mantra Count : 11 Malas X 5 days = 55 malas


10. Pushpdant Prayog Mantra:

|| OM KLEEM KAAM RUPINAYE NAMAH ||

Sadhana Materials : Pushpdant Yantra, Padma Rosary

Mantra Count : 8 Malas X 1 days = 8 malas


11. Narayani Prayog Mantra:

|| OM NARTAV HREEM NARANYANTAV SHREEM OM ||

Sadhana Materials : Narayani Yantra, Narayan Rosary

Mantra Count : 5 Malas X 3 days = 15 malas


12. Vidyut Prabha Prayog Mantra:

|| OM KROUM KROUM KAYAKALP SHROUM SHROUM OM ||

Sadhana Materials : Vidyut Prabha Yantra, Kayakalp Rosary

Mantra Count : 15 Malas X 4 days = 60 malas


13. Vajra Vaarahi Prayog Mantra:

|| OM KLEEM VAJRA VEIROCHANIYE PHAT ||

Sadhana Materials : Vjara Varahi Maha Yantra, Red Hakeek Rosary

Mantra Count : 8 Malas X 5 days = 40 malas


14. Manohar Prayog Mantra:

|| OM OM MANOHAARINAYE SUR DEVYE OM OM ||

Sadhana Materials : Manohara Siddhi Yantra, Manohara Rosary

Mantra Count : 15 Malas X 4 days = 60 malas


15. Kaamdhenu Prayog Mantra:

|| OM KREEM SHREEM HREEM HREEM OM ||

Sadhana Materials : Kamdhenu Yantra, Vidyut Rosary 

Mantra Count : 11 Malas X 5 days = 55 malas

Sunday, November 27, 2011

SAPT JEEVAN SARV DEVATV SARV SADHNA SIDDHI DIKSHA

क्या ये सच है ??? बस यही सोचता रहा उस रात ..... आखिर क्यूँ उसी बात को मैं बार बार सोच रहा था .
अब नींद भी नहीं आ रही थी मुझे , पर क्यों??

बस अब नहीं समझ में आ रहा है , अब तो कल मैं सदगुरुदेव से पूछ कर ही रहूँगा. दर असल में हुआ ये था की नवरात्री का शिविर चल रहा था और उस दिन प्रथम सत्र में लगभग १२ बजे गुरुदेव ने अचानक अपने प्रवचन के मध्य बताया की “ तुम लोगो से मेरे सम्बन्ध आज के नहीं हैं बल्कि मैं पिछले २५ जन्मों से तुम्हारा गुरु हूँ” और बस तभी से ये बात मेरे दिमाग के दरवाजे खटखटाने लगी और उसके बाद तो बस बैचेनी सी मेरे मन में समा गयी थी. और अब प्रतीक्षा थी तो बस सदगुरुदेव से मुलाकात की.......

आखिरकार अष्टमी को उनसे मुलाकात संभव हो पाई और वो भी खुद उन्होंने ने ही बुलाया और सर पर चपत मारकर कहा – अब तेरे दिमाग में ये क्या नया घूमने लगा , तू कभी अपने दिल दिमाग को आराम भी देगा.
जी आप ने ही तो कहा है की शिष्य बनने के पहले साधक को जिज्ञासु होना चाहिए- मैंने आँखे झुका कर उत्तर दिया.
हाँ बेटा ये सही बात है और उससे भी ज्यादा जरुरी ये है की,चाहे गुरु सर्व समर्थ हो तब भी अपने मन के भाव उनके चरणों में लिख कर या बोलकर व्यक्त करना ही चाहिए .
पर यदि उनसे मुलाकात संभव नहीं हो तब ????
क्या तेरे पास गुरुचित्र भी नहीं है, उसके सामने व्यक्त कर .
और यदि कभी गुरुचित्र भी पास में न हो तब??
बेटा गुरु और शिष्य प्रथक नहीं होते हैं. बल्कि वो दो देह औए एक प्राण ही होते हैं, भला आत्मिक रूप से अलग अलग रहकर कोई कैसे शिष्य बन सकता है. जब गुरु के प्राणों से साधक के प्राण मिल जाते हैं या एकाकार हो जाते हैं तभी तो वो साधक सच्चे अर्थों में शिष्य बन पाता है. गुरु के प्राणों में उसके प्राण एक तीव्र आकर्षण से जुड जाते हैं , और ये जुड़ाव इतना तीव्र होता है की इसे विभक्त किया ही नहीं जा सकता .
और खुद ही सोच जब आत्मिक रूप से दो प्राण एकाकार हो जाते हैं तब चाहे शिष्य कितने बार भी जन्म ले ले , कही भी जन्म ले ले, गुरु अपने उस अंश को ढूँढ कर अपने पास बुला लेता है , ठीक वैसे ही जैसे मैंने तुम सभी को खोज कर बुलाया है. पर ये इतना सहज नहीं होता है , क्योंकि तब वो शिष्य अपने संबंधों की तीव्रता को महसूस नहीं कर पाता है और न ही उसे अपने जीवन का मूल चिंतन ही याद रहता है , उसे तो बस अपने आस पास के स्वार्थलोलुप रिश्तों की ही याद रहती है और प्रेम की सत्यता को तो वो समझ ही नहीं पाता. बस जिन्हें वो शुरू से देखता आया,वो रिश्ते ही उसकी दृष्टि में सत्य होते हैं. पर जब शिष्य गुरु के प्राणों के तीव्र आकर्षण से उनके श्री चरणों में पहुच जाता है तो गुरु उसे पूर्णत्व प्रदान कर ही देते हैं.
क्या मैं अपना पिछला जीवन देख सकता हूँ ?
हाँ क्यूँ नहीं देख सकता. पिछला जीवन तो कोई भी साधक देख सकता है , यदि वोमदालसा साधना संपन्न कर ले तो ये क्रिया सहज हो जाती है . इसी प्रकार पारदेश्वर के ऊपर त्राटक की क्रिया कर साधक अपने विगत जीवन को देख सकता है.
पर मुझे वो सभी पूर्व जन्म देखने हैं जिनमे मैं आपके श्री चरणों में था और आपके दिव्य साहचर्य से मेरे जीवन सुवासित और पवित्र हुए थे .
क्या ये संभव है??
हाँ मेरे बेटे यदि उपरोक्त साधनाओ को साधक लगातार करता रहता है तो निश्चय ही वो और ज्यादा जन्मों को देख सकता है. पारद शिवलिंग पर त्राटक की क्रिया तो होनी ही चाहिए .
क्या मैं पिछले जीवन में की गयी साधनाओ को इस जीवन से जोड़ सकता हूँ??
निश्चय ही जोड़ सकते हो. पर एक बात याद रखो की पिछले जीवन को देखना और उसमे की गयी साधनाओ का इस जीवन से योग करना ये दो अलग अलग बाते हैं. क्यूंकि उन साधनाओं को इस जीवन से जोड़ने में जिस ऊर्जा और शक्ति की आवश्यकता होती है वो सामान्य रूप से एक नए साधक में नहीं होती है.
तब ये कैसे हो सकता है?
यदि गुरु अपने तपः बल से साधक को एक विशेष दीक्षा दे तो निश्चय ही ऐसा संभव हो जाता है , क्यूंकि चाहे साधक ने कितने ही जीवन में साधनाएं की हो पर अत्यधिक कठिन होता है पिछले सात जीवनों की शक्तियों को एकत्रित करना सम्पूर्ण चक्रों के जागरण के बगैर उनकी चैतन्यता को प्राप्त किये बगैर ये संभव ही नहीं है , परन्तु जब सद्गुरु उसे ऐसी विशेष दीक्षा दे दे और स्वयं के प्राणों का घर्षण कर शिष्य को वो मन्त्र प्रदान कर दे तो साधक उस मन्त्र का पारद शिवलिंग पर त्राटक करते हुए जितना ज्यादा जप करता जायेगा उसे वो सब सामर्थ्यता धीरे धीरे प्राप्त होते जाती है फिर चाहे उस शिष्य ने अपने पिछले जीवनों में किसी भी प्रकार की , कितनी भी साधनाएं की हो चाहे वो किसी भी शक्ति की हो , वे सभी साधनाएं और उनका पूर्ण प्रभाव साधक को इसी जीवन में प्राप्त हो ही जाता है और साधक उन सभी प्रक्रियाओं में पूर्ण रूपें पारंगत हो जाता है. और सात जीवनों की यात्रा के बाद तो साधक की यात्रा इतनी सहज हो जाती है की उस मन्त्र के अभ्यास से से वो और पीछे जाते जाता है और उन शक्तियों को क्रमशः प्राप्त करते जाता है. और सद्गुरु हमेशा यही चाहते हैं की उनका शिष्य अपने अस्तित्व को पूर्ण रूपें समझे और अपने लक्ष्य को प्राप्त करे. इससे ज्यादा गुरु को और क्या चाहिए .
क्या मुझे वो दीक्षा प्राप्त होने का सौभाग्य मिल पायेगा? इसे प्राप्त करने की पात्रता क्या है?
इसके पहले तीन ऐसी दीक्षाएं हैं , जिन्हें प्राप्त कर साधक उससे सम्बंधित साधनाओं को पूर्णता के साथ संपन्न करे तो निश्चय ही साधक को सद्गुरु उसके आग्रह पर ये अद्विय्तीय दीक्षा प्रदान करते ही हैं और साथ ही साथ इससे जुड़े रहस्यों को उजागर भी कर देते हैं. 

सदगुरुदेव के आशीर्वाद से मैंने उन तीनों दीक्षाओं को प्राप्त कर उनसे सम्बंधित साधनाएं भी संपन्न की और तब मैंने गुरुदेव से उस अद्भुत दीक्षा और उससे सम्बंधित रहस्यों का ज्ञान प्रदान करने के लिए प्रार्थना की. तब उन्होंने अत्यंत करुणा भाव से मुझे वो पूर्ण क्षमता युक्त अद्भुत दीक्षा प्रदान की जिसे सिद्धाश्रम के योगियों के मध्य “सप्त जीवन सर्व देवत्व सर्व साधना सिद्धि दीक्षा” के नाम से जाना जाता है.
बाद में मैंने उनके निर्देशानुसार साधनाओं को क्रियाओं को संपन्न कर उन रहस्यों को समझ पाया जो मेरे पिछले जीवन से जुड़े हैं.और आज मैं जो कुछ भी समझ पा रहा हूँ उसके मूल में यही रहस्य है. जीवन का सौभाग्य होता है साधनाओं को संपन्न कर अपने पिछले जीवन को अपनी इन्ही आँखों से देख पाना, क्यूंकि तभी तो हमें अपने इस जीवन के दुर्भाग्य का कारण ज्ञात हो पाता है.
क्या अब भी हम गिडगिडाकर ही जीवन जीते रहेंगे. अब मर्जी है आपकी क्यूंकि जीवन है आपका.





Is this true????Only this I kept thinking that night….But Why, I was thinking only this one point again & again?????Even, I was restless, cannot make for the sleep…..But, not able to make Why????
Now, it’s enough, I will definitely ask Sadgurudev tomorrow anyhow… 

Actually what happened there was Navratri Encampment and on the first day in first session approximate at 12:00 pm in the mid of the session Gurudev suddenly told that the relations between You and Mine is not from today, but we are bonded as a Shishya and a Guru from last 25 birth-cycles……& that was the point which got stucked in my mind and I became so curious….only, I was waiting for the moment I will meet Sadgurudev….
At last, on Ashtami day, I was able to meet Sadgurudev & that too he called me up & patted on my head saying –(All the conversation was between me & Gurudev)
Gurudev - now what new is running in my head & can you give rest to your heart & mind???
Me - Gurudev, you only told that a devotee should have the ability to be curious – I answered by lowering my eyes down….
Gurudev -Yes, My son this is very much true, but the more important thing is no matter the Guru is wholesole,still express the emotions either in written or oral in his feets…
Me – But, what if meeting is not possible???
Gurudev - Don’t you have any of the Guru Picture with you? Do express in front of his picture...
Me – But, what if Guru Picture is also not with you???
Gurudev – My Son, Guru and Shishya are not separate, they are two bodies but one soul….You only tell, how departed from the soul, one can be able to act as a Shishya…..When the devotees get attached with the soul of the Guru, then only a devotee is able to become a true Shishya…The soul of the Shishya gets attached with the Guru soul with great attraction & this attraction is so much bonded that it cannot be departed….
& now you only think when the two different life becomes one through the soul, then no matter the Shishya takes infinite birth he will be identified by his Guru from anywhere and will be called near to him just as I have called all of you…..But, this is not so easy, because at this time the Shishya cannot realize the intensity of the relations and neither he is able to recollect the main base of his life…He is just carried away with the relations which are near to him and is unaware of the fat of true love because he believes only those relations which he had seen since his childhood and grown up with them….But, as soon as he devotes himself into the guidance of the Guru, the Guru provides him the completeness of the life….
Me – Can I experience my previous birth???
Gurudev - Yes, why not???Any devotee can see this if he performs – Madalsa Sadhna, this act will become easy….Simliarly, by performing Tratak Kriya on Pardeshwar will also help in experiencing of his previous birth….
Me – But, I want to experience all my previous birth in which I was devoted to you and my life got blessed under your shelter…..Is this possible???


Gurudev - Yes, my Son, if you will practice the above Sadhna regularly, you will able to feel the experience of more & more previous birth life…. & yes Tratak Kriya on Pardeshwar is must…
Me – Can I get connected with the previous devotions also in this life???
Gurudev -Yes, you can definitely do it but do remember to experience previous birth and to connect the devotions with this life are totally different from each other because to connect those devotions from that life to this life requires too much energy and power and a new devotee does not contains that much of amount….
Me – Then, how is this possible???
Gurudev - If the Guru by recollecting all his devotional power and energy gives a special convocation (Deeksha) to the Shishya, it becomes possible…because no matter a devotee has worked so hard for the devotions but to recollect the last 7 births energy and to activate the whole chakras & auras without the activations of these energy is very much difficult….But, when the Guru gives such a special convocation and keep his all his life on sake for the Shishya and gives that mantra & when the Shishya performs that Mantra on Parad Shivling by the Tratak Kriya he is able to become capable enough to recollect & experience all those energy & powers which he conducted or performed in his previous births & becomes expert in all these processes….& after the 7 births this journey becomes so easy that the devotee can go back to as many life and acquire as much energy and power he can & Sadgurudev always wants this only that his Shishya understand the motto of his existence and achieve his target and aim…..
Me – Will I be blessed with this convocation & how can I make myself eligible for the same???
Gurudev -Before this convocation, the devotee needs to acquire 3 other convocations by which he can perform any act in a complete manner and when he accomplished this thing, the Sadgurudev not only provides the most special convocations on request of the devotee but also explore the many hidden secrets related to all these acts…


With the blessings of the Sadgurudev performed all the 3 convocations and accomplished all the other devotions also & then I requested Sadgurudev to provide me the special secrets of that devotions and then the Sadgurudev with all his love and blessings told the most special convocation which is known as – “Sapt Jeevan Sarv Devatv Sarv Sadhna Siddhi Deeksha” in the camp of the devotes of the Siddhashram…
Later on, in guidance of the Sadgurudev I performed all those devotions and was able to understand all those hidden secrets which were connected with my previous births and today also, if I am able to understand all the other aspects are just because of the fact which lies in base of all these acts…..
This is only the blessings and a good fortune to see, know and learn about the past and previous birth life as because only after this we are able to understand about all the misshapennings of this present life…
we can devote our lives in Sadgurudev holy feets….

.Still, you want to live on others mercy???? Well, the decision is yours as the life belongs to you….



Purv Jivan Darshan Sadhana


मानव जीवन एक अनत लम्बाई लिए हुए श्रंखला में ही गति शील ही हैं , यदि आज के जीवन को बर्तमान माने तो इसका भविष्य और भूतकाल भी तो होना ही चाहिए ही , जीवन को एक रस्सी मान ले और उसके मध्य के किसी भी भाग के पकड़ ले तो निश्चय ही कहीं तो उसका प्रारंभ होगा और कहीं तो उसका अंत होगा ही भले ही वह हमें दृष्टी गत हो या न हो, ठीक इसी तरह हमें हमारा न अतीत मालूम हैं न भविष्य हम मध्य में कहाँ हैं , कहाँ जायेंगे यह सब भी नहीं मालूम ,
जीवन के अनेक प्रश्नों का उत्तर इतना आसान नहीं हैं , की मात्र कुछ तर्क और वितर्क से वर्तमान जीवन की सारी उच्चता और विसंगतियों को समझा जा सके .उसके समझने के लिए पूर्व जीवन दर्शन होना ही चाहिए , तब पता चल सकता हैं की मेरे जीवन में ऐसा क्यों हैं इसका कारण क्या हैं , और जब ये समझ में आ जायेगा तो उसके निराकरण के उपाय भी खोजे जा सकते हैं .
अन्यथा,पूरा जीवन एक अनबुझ पहेली सा बन कररह जायेगा , अपने देश में तीन महान धर्म का उदय हुआ हैं ये हिन्दू , बौद्ध और जैन धर्म हैं , आपस में इनके कितने भी विरोधाभास दिखाए दे पर एक बात पर सभी एक मत हैं की कर्म फल तो प्राप्त होता ही हैं और सहन करना ही पड़ेगा
वेदान्त कहता हैं -हाँ हमने ही उस कर्म का निर्माण किया हैं तो हम ही उसे समाप्त कर भी सकते हैं , पर कैसे उसके लिए कारण भी तो जानना पड़ेगा न ,
आज के जीवन में यही क्यों मेरा भाई हैं या मेरे निकटस्थ होते हुआ भी इनके प्रति मेरे स्नेह सम्बन्ध क्यों नहीं हैं , क्यों दूरस्थ होता हुआ भी व्यक्ति अपना सा लगता हैं, क्यों इतनी गरीबी या शरीर में इतने रोग हैं आदि आदि अनेक प्रश्नों के उत्तर भी मिल जाते हैं ,
क्या इस जीवन में जो गुरु हैं या सदगुरुदेव हैं क्या वह विगत जीवन में भी या उससे भी पहले के जीवन से जुड़े हैं और क्या कारण था की /और कहाँ से संपर्क टुटा , सब तो इस पूर्व जीवन दर्शन से संभव हैं,
आजकल अनेको प्रविधिया विकसित हैं ध्यानके माध्यमसे व्यक्ति धीरे धीरे पीछे जा सकता हैं पर ठीक बाल्य काल की ४ वर्ष कि आयु से पहले जाना बहुत ही कठिन हैं , इस अवरोध को पास करना कठिन हैं .
सम्मोहन भी एक विधा हैं पर उसके लिए उच्चस्तरीय सम्मोहनकर्ता होना चाहिए , साथ ही साथ मानव मस्तिष्क इतना शक्तिशाली हैं की वह जो नहीं हैं वह भी आपको दिखा सकता हैं , इन तथ्योंको जांच करना जरुरी हैं .
साधना क्षेत्र में भी अनेको साधनाए हैं पर सभी इतनी क्लिष्ट हैं इन सभी को ध्यान में रखते हुए एक सरल प्रभाव दायक साधना आप सभी के लिए ..
 मन्त्र :
क्लीं पूर्वजन्म दर्शनाय फट्
सामान्य साधनात्मक  नियम :
·  जप में  काले  रंग की हकीक माला का उपयोग करें
·  साधना  बुध वार से प्रारंभ करसकते हैं 
·  जप काल में  दिशा  दक्षिण   रहेगी 
·  साधन काल में  धारण  किये जाने वाले वस्त्र और आसन  लाल  रंग के होंगे 
·  धृत के दीपक को देखते हुए  रात्रि काल १०  बजे के बाद(10PM) मे 31 माला  मन्त्र जप होना चाहिए 
·  यह क्रम ११ दिन तक चले अर्थात   कुल ११ दिन  तक साधना चलनी चाहिए .
 सफलता पूर्वक होने पर आपको स्वप्न या तन्द्रा अवस्था मे पूर्व जन्म सबंधित द्रश्य दिखाई देते है.  जिनके माध्यम से आपके जीवन की अनेक रहस्य  खुलती जाती हैं. 
आज के लिए बस इतना ही 

***************************************************************************                              This  human life is an integral/ very small  part of  a infinite lengthy  chain ,  if we consider  this  life as a present than  past and future  will definitely  be  there. If you  consider   life as  rope and   in any middle part   you touch than  you can  surely knew that there must  be somewhere  beginning  and  so there must be  some there end,  but we can  not see that ,  but  this is true , we don’t  know where we came  from and where we will go .
 The answer of Many question’s  of life are  not so easy to answer, we cannot  justify  the any problem’s with through  logic only , so we need to see the past lives so that we can  understand  why we behaves like that , reason   behind of various cause/events  that , if we know the cause than we can  search the remedy of that  problem.
 Other wise  our whole  life  became  a just a puzzle , here in our  country  three  great  religion comes   Hindu, jain and  bouddh , in spite  of various differences and beliefs they all are agreeing on a point   that there “a law of karma” applicable everywhere and what  you sow  ,you must  be reap.
  Vedanta says – yes if created the past karma  than we can also remove  or destroy that ,but how  ? for that again we need to know the  cause,
 In this life  ,why this is my  brother  or  this fellow is very near to me but  still  I did not  get enough feeling for  him,   and on the other hand  that one  is living  very  distant land  , and we have  strong attachment to that why?. Why I am  so poor  or  why so many dieses happened to my body, alike all  theses question also get answered.
 The Sadgurudev or guru of this   life, whether  they are alsobe my guru/Sadgurudev   in the past life  . What is the reason why our connection got  broke, so  this all  can be easily known.
There are so many   process available today , through meditation you can  go backward but crossing the  line of  childhood age  of 4 years memory   is very  very difficult,  the hypnotism is also a  very powerful medium,  for  that you have to be  a very expert in that science, but always  remember that our mind is  also a  powerful medium , it can fool you,  so the cross checking of various facts must also be necessary to arrived a  conclusion.
There are many sadhana for this  purpose  in sadhana jagat  and they are quite lengthy, so here is one which  very easy  and effective  for you all..
Mantra:
Kleem purvjanam darshnaay  phat
 General rules :
·  For  jap  you can use   black hakik rosary/mala .
·  Sadhana can be started on any Wednesday.
·  Direction would be  south  facing.
·  The clothes and aasan would be of  red in color.
·  Light up an earthen lamp  filled with ghee and sadhana  should be started after 10  pm(night), and each day 31 mala should  be done.
·  While doing Mantra jap ,Tratak on that  earthen lamp (Deepak) is necessary .
·  This sadhana should be done  11 day in continuous .
 On successfully completing this sadhana you will  get  glimpse of  your past life in dreams. and many mystery of your life get solved.
 This is enough  for today .

SADGURUDEV PRASANG- THAT ONE SECOND

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गुरुदेव के सन्याश जीवन की कुछ कडिया एसी होती हे जो की गृहस्थी से जुडी हुयी होती हे. एसी कई घटना हे जोकि गुरुदेव के सन्याशी शिष्यों के साथ घटी हे और बदल दिया हे इतिहास, किन्तु एसी घटनाए प्रकाश में नहीं आती हे . एसेही एक घटना की जानकारी मुझे मिली तो सहम सा गया में, उलज के रह गया, और सवालो का तूफ़ान कुछ एसा उठा की पागल सा हो गया कुछ क्षण , पर जवाब तो उसका वो एक क्षण मात्र ही थी , जिसने कितनो की ज़िन्दगी बदलदी और नजाने कितनो की ज़िन्दगी बदलेगी. वो एक क्षण जिसके ऊपर न जाने किसका हक कहा जाए . और क्या हुआ था, केसे कब और क्यों , क्या खाश हुआ उस एक क्षण में, आगे उसीके शब्दों में ......

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अमृत मंडल, गुरुदेव ने अपने सन्याश जीवन में चुन चुन के ४० शिष्यों को एकजुट किया और इसी मंडली को नाम दिया अमृत मंडल. पता नहीं गुरुदेव का इसपर क्या विचार रहा होगा. ४० शिष्यों को वो टोली , जिसमे एक से एक विलक्षण व्यक्तित्व. सभी अपने अपने साधना विषयो में तो निष्णांत थे ही पर सभी व्यक्तिगत रूप से भी कुछ विचित्र, कुछ फक्कड़, कुछ अलग से रहने वाले. में भी उनमे से ही एक था. गुरुदेव ने हमे उन उँचइयो पर पहोचाया था जहाँ तक साधक कल्पना ही कर सकते हे और इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए एक दिन वह भी आया की जेसे रहे फट जाए . गुरुदेव सन्याश छोडके वापिस गृहस्थी में जा रहे थे. दुसरे सन्याशी शिष्यों की तरह अमृत मंडल के कोई भी साधक ने उन्हें रोका नहीं. सब जानते थे की गुरुदेव वही करेंगे जोकि सही होगा और हमें अपने भावनाओ के ऊपर काबू पाना भी सिख ही तो लिया था. गुरु कोई व्यक्तिगत सम्पति थोड़ी हे, उन पर तो सभी शिष्यों का हक हे . और हम भीनी आँखों से उसे विदा होते हुए देख रहे थे
हिमालय जेसे हसना ही भूल गया था, प्रकृति मायूस सी दुखी सी होके बेठी रहती थी , और सभी सन्याशी शिष्यों की बात ही क्या कहू, वो तो जेसे चलते फिरते पुतले हो गए थे. पर पता नहीं क्यों गुरुदेव किसी भी सन्याशी शिष्यों को मिलने के लिए तैयार ही नहीं होते थे . क्यों ? आखिर क्यों वो अपने आत्मीयो से अलग रहते हे , ठीक हे लेकिन एक बार वो मिल तो सकते ही हे . और में भी यही सोचके दिल बहला लेता था की गुरुदेव कुछ कर रहे हे तो शिष्यों की भलाई के लिए ही करते होंगे.
उसी दौरान गुरुदेव का सन्देश मिला. उन्होंने मुझे बुलाया था , मिलने के लिए. जान के आश्चर्यचकित हो गया में की एसा केसे हुआ , क्यूँ की मेने कभी गुरुदेव से मिलने के लिए गुज़ारिश नहीं की थी और कई तो रो रो के जेसे बेजान मूर्ति बन गए थे. फिर भी .....आखिर उन्होंने बुलाया हे , ज़रूर कुछ तो विशेष होगा ही.दुसरे दिन निश्चित समय पर , कुछ ही क्षण में पहोच गया में उस मंदिर में जहाँ मेरे भगवन साक्षात् थे. अपना रूप परिवर्तन करके गृहस्थ बना और आगे बढ़ गया... सायद उस दिन कुछ विशेष ही होगा. गुरुदेव और वन्दनीय माताजी बहार खड़े थे और खिचड़ी बाँट रहे थे , एक लम्बी सी कतार थी, में उसी में ही खड़ा हो गया. दूर से ही उनकी मुखाकृति देख रहा था, वही प्रसन्नचित्त चहेरा, आन्दित सा, जो हमेशा आनंद बिखेरता रहता हे . अब में उनसे कुछ ही दूरी पर खड़ा था. कई साल बाद उनको देखना देखना नहीं होता, वो तो एक एसा जाम होता हे जिसे पिटे ही रहे पिटे ही जाए, ये तो वही समाज सकता हे जिसने विरह की वेदना देखि हो, वो आनंद एक दूरी ही समजा सकती हे. खेर एक सेवक ने मुझे पड़िया दे दिया. में आगे बढ़ा और वन्दनीय माताजी जो की सच में ब्रम्हांड की शक्ति हे , जो सिर्फ ममता ही ममता बहाती रहती हे उन्हें प्रणाम किया , उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आशीर्वाद दिया. और थोड़ी खिचड़ी उठा के मेरे पदिये में दाल दी.

और में आगे बढ़ा, सदगुरुदेव की तरफ. थोड़े दुबले ज़रूर हो गए थे वह, पर मुखाकृति पर वही प्रसन्नता वही आनंद, में जुका और उनके वो पावन चरणों का स्पर्श किया जो की देवताओ के लिए भी दुर्लभ हे. और में उठा. मेने देखा वे सिर्फ निचे की तरफ देख रहे हे. एक क्षण जेसे सालो में बदल चूका था. में इसी रह में था की वो मुझे देखे, सालो बाद में उनकी आँखों में वो ममता करुणा सब देखू , पूरा ब्रम्हांड देखू पर वो पता नहीं कुछ अकड़ सा गया में , लोकिक भाषा में कहू तो ये सब आधी सेकंड में ही हो रहा था. और अचानक उन्होंने नज़ारे उठाई और सीधे तक दिया मेरे नज़रो में

और मेरी रूह कांप गयी जब मेने देखा उनकी आँखों में, वहां पे विषाद था, वहां पे चिंता थी , वहां पे एक दर्द था, बस एक क्षण , और में समजा की क्यों वो नहीं मिलने देते अपने सन्याशी शिष्यों को, और मेने समजा , उन गृहस्थ शिष्यों को भी , उनकी स्वार्थ परस्ता को, उनकी मक्कारी को, उनकी जूठी और खोकली शिष्यता को , और ये सब बस सिर्फ एक क्षण के लिए उतर आया उनकी आँखों में.

एक क्षण भी न रुक पाया में वहा पे, थोडा आगे बढ़ा और ओज़ल हो गया में उस दुनिया से, गुरुदेव ने सब कुछ ही तो कह दिया एक क्षण में , और में भी क्या कहता उनसे. उतना ही काफी था. अगर सायद ज्यादा क्षण रुकता तो में वहीँ तड़प के प्राण त्याग देता. कुछ क्षण or पहोच गया में वही जगह जहा पे अमृत मंडल के शिष्य मेरी राह देख रहे थे, प्रसाद दिया उनको.
सीधे ही उन्होंने पूछा , भाई केसे हे हमारे प्रभु,
मेने कहा ठीक हे . ज्यादा बोल सकू एसी स्थिति ही कहा थी.
और एक पानी की बूंद निकल गयी आंखसे और गिर गयी निचे स्वामी आशितोश के पैर के पास .
क्या हुआ भाई, सब ठीक तो हे
अब और में क्या करता, कब तक दबे रखता अपने दर्द को ...और चींख के साथ निकल गया वो दर्द मेरे आँखों से...भीगा हुआ सा मेरा चेहरा सब कुछ कह गया जो में न कह सका.

स्वामी भ्रमण आनंद , स्वामी शिस्यानन्द, स्वामी प्रेक्षानन्द ..आदि १५ लोगो ने तो देह त्याग पहले ही कर दिया था, ये कहके की गुरुदेव गृहस्थी में जा रहे हे तो हम भी उनके साथ ही जाएँगे. और उन्होंने शारीर का त्याग कर गृहस्थी में जन्म ले लिए, पर इसके बाद गुरुदेव ने मन कर दिया की कोई भी अब देहत्याग कर गृहस्थी में जन्म न ले. अब इस अमृत मंडल के २५ साधक ने रात को ही सदगुरुदेव से अश्रु भरे नैनों से निवेदन किया की वो अब उनका दर्द नहीं देख सकते , गुरुदेव ने भी सभी की भावनाओ को दिल में स्थान दिया और उनको कहा की वो क्या कहते थे

सब ने कहा की गुरुदेव हम देहत्याग करके गृहस्थी में जन्म लेंगे और आपके कार्य को आगे बढ़ाएंगे.

और गुरुदेव ने कृपा करके वो निवेदन स्वीकार कर ही लिया था. सबको अलग अलग निश्चित अवधि दी गयी जिसके बाद ही वो देहत्याग कर सकते हे.
और एक एक करके सब ने देहत्याग किया . में सब से आखरी था . में देख रहा था उस सूर्य को की जो पश्चिम की और भागे जा रहा हे. और में देखते ही रह गया क्यूंकि...कल एक नया सूर्योदय होने वाला हे.......
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और सुबह होने से पहले ही उस अमृत मंडल के आखरी सभ्य ने भी अपने प्राण को शरीर से अलग कर दिया. वो जिसने १२ कृत्ये सिद्ध कर रखी थी, वो जो साधू समाज में मशहूर था अपने अन्नपूर्णा साधना से , जिसकी पहचान थी उसका पागलपन , अल्हड़पन , जिसके गुस्से के आगे कोई गति नहीं, वो जिसे भगवन का भी डर नहीं था.......वही सहम गया था, डर गया था सिर्फ वो एक क्षण में जो उसने गुरुदेव की आँखों में देखा था ......आज वो कहाँ हे किस हाल में कुछ कहा नहीं जा सकता मगर अमृत मंडल के वो सदस्य और वो योगी उस एक क्षण कभी भी नहीं भुला पाए होंगे

जय गुरुदेव

Wednesday, November 2, 2011

Mrityorma Amritn Gmay - 2 मृत्योर्मा अमृतं गमय

क्या हम इस स्थिति को अपने-आप से टाल सकते हैं| यह तो अपने आप में पेचीदा और बहुत दुःखदायी स्थिति है कि हमने अपने जीवन को इतने सरल स्तर पर व्यतीत किया और इस पुरे जीवन को व्यतीत करने के बाद भी हमें कई वर्षों तक इस आत्मा में भटकना पड़ता है और वापिस जन्म नहीं ले पाते| जबकि हम चाहते है कि हमारा जन्म हो और जन्म लेने के बाद फिर हम इश्वर चिन्तन करें, जन्म लेने के बाद फिर हम साधनाएं करें, फिर हमें आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करें, फिर हम गुरु चरणों में बैठें, हम फिर इस मृत्यु लोक के प्राणियों की सेवा करें, उनको सहयोग करें, उनकी सहायता करें| मगर यह तब हो सकता है जब आप जन्म लें| यदि हम जन्म ही नहीं ले सकते, तब यह आध्यात्मिक चिन्तन और साधना, ये सब हमारे लिये दुराग्रह बन गए हैं| इसलिए कुछ विशिष्ट आत्माएं, यदि इस जीवन में ही साधनाएं संपन्न कर लेती है तो उनकी अपनी चेतना का पूरा ज्ञान रहता हैं| उनको ज्ञान रहता है कि मैं कहां था, किस रूप में था, पहले जीवन में कौनसी साधनाएं संपन्न की थी, कहां जन्म लिया था, किस प्रकार से जन्म लिया था? और उसको साधना की वजह से ही यह भी चैतन्यता रहती है कि मुझे जल्दी से जल्दी जन्म लेना है| उसे उस बात का भी ध्यान रहता कि मैं उच्च कोटि के गर्भ को ही चुनूं|

अभी तक उन प्राणियों ने या मैं यूं कहूं कि मृर्त्यु लोक के जो नर और नारी हैं, पति-पत्नी हैं उनके पास ऐसी कोई शक्ति, ऐसा कोई सामर्थ्य नहीं है कि वह उत्तम कुल के प्राणी को ही जन्म दें या किसी विशिष्ट योगी को ही अपने गर्भ में प्रवेश दें| उनके पास कोई साधना नहीं हैं| उस समय, जिस समय गर्भ खुला रहता है उस समय कोई भी दुष्ट आत्मा या अच्छी आत्मा गर्भ में प्रवेश कर जाती हैं| उस गर्भ को धारण करना उसकी मजबूरी हो जाती है| ये हमारे जीवन की विडम्बना है, यह हमारे जीवन कि न्यूनता है, ये हमारे जीवन की कमी है| इसलिए यह बहुत पेचीदा स्थिति है क्योंकि मृत्यु पर हमारा नियंत्रण नहीं है| हम जिस प्रकार के प्राणियों को हमारे गर्भ में धारण करना चाहते हैं, उस पर भी हमारा नियंत्रण नहीं है| जो भी दुष्ट और पापी आत्मा हमारे गर्भ में प्रवेश कर लेती है, उसी को हमें गर्भ में प्रवेश देना पड़ता है| उसी को पैदा करना पड़ता हैं, उसी को बड़ा करना पड़ता हैं और बड़ा होने के बाद वह उसी प्रकार से अपने मां-बाप को गालिया देता है, समाज विरोधी कार्य करता है और अपना नाम और अपने मां-बाप का नाम कलंकित कर देता है| इतना कष्ट सहन करने के बाद दुःख देखने के बाद, उसकी पूरी परवरिश करने के बाद भी हमें यही दुःख भोगना है तो यह हमारे जीवन की विडम्बना है, यह हमारे जीवन की कमी है और इस पर मनुष्य चिन्तन नहीं करता, विचार नहीं करता, विज्ञान इस प्रश्न को सुलझा भी नहीं सकता|

इस प्रश्न को सुलझाने के लिये ज्ञान का सहारा लेना पडेगा, साधना का सहारा लेना पडेगा, आराधना का सहारा लेना पडेगा| यहां ये तीन प्रश्न हमारे सामने खड़े होते हैं| एक प्रश्न तो यह कि क्या हम जितने समय तक चाहें जीवित रह सकते हैं और जीवित रह सकते हैं? जीवित रहने का तात्पर्य रोग रहित जीवन हैं और यदि हम जीवित हैं, अरे हुए से हैं, बीमार हैं, अपंग है, लाचार है, खाट पर पड़े हुए हैं और दूसरों पर आश्रित हैं तो वह मूल में जीवन नहीं हैं| वह जीवन मृत्यु के समान है| जीवित होने का तात्पर्य, स्वस्थ तंदुरूस्त और कायाकल्प से युक्त जीवन हो, बलवान हो, पौरुषवान हो, क्षमतावान हो और इसका उत्तर मेरे पास यह है कि हम निश्चय ही स्वस्थ जीवित रह सकते हैं| जितने समय तक चाहें जीवित रह सकते हैं| ५० साल, ६० साल, ८० साल, १०० साल, २०० साल, ३०० साल, ५०० साल, १००० साल, २००० साल तक हम जीवित रह सकते हैं और निश्चित रूप से जीवित रह सकते हैं| स्वस्थ-सुन्दर, तंदुरूस्त के साथ और पूर्ण चैतन्यता के साथ और पूर्ण यौवन स्फूर्ति के साथ, मगर इसके लिये मृत्योर्मा अमृतंगमय साधना संपन्न करना आवश्यक हैं|

यह जो मृत्योर्मा साधना है| उस साधना को संपन्न करने से शरीर में एक गुणात्मक रूप से अन्तर आ जाता है| एक परिवर्तन आ जाता है जिस प्रकार से एक बैटरी जो चार्ज की हुई बैटरी है हा यूज करते हैं| कुछ समय बाद उस बैटरी के अन्दर की पॉवर समाप्त हो जाती है और जब समाप्त हो जाति है तो उसे वापिस चार्ज करना पड़ता है| चार्ज करने के बाद वह बैटरी वापिस उसी प्रकार से शरीर की शक्ति दिन-प्रतिदिन क्षीण होती रहती है और क्षीण होते-होते एक स्थिति ऐसी आती है कि शरीर की बैटरी समाप्त हो जाती है| जिसको हा मृत्यु कहते है और यदि हम उसको वापिस चार्ज करने की क्षमता प्राप्त कर सकें, कोई ऐसा ज्ञान, कोई ऐसी चेतना कोई ऐसी साधना हो, जिससे जिससे हम वापिस अपने आप को चार्ज कर सकें| फिर हम ६०-७० साले वापिस जी सकते है| जब ये बैटरी समाप्त हो जाये, फिर उसे चार्ज कर लें, फिर हम ६०-७० साल जीवित रह सकते हैं| जिस प्रकार से बैटरी डिस्चार्ज होती है| ठीक उसी प्रकार से शरीर की शक्ति शनैः शनैः क्षीण होती रहती है और क्षीण होते-होते एक स्टेज ऐसी आती है कि वह बैटरी, शरीर की बैटरी समाप्त हो जाती है| जिसको हम मृत्यु कहते हैं|

मृत्योर्मा अमृतंगमय साधना जीवन की श्रेष्ठ, अदभुद और उन्मत साधना है| जिसे योगियों ने ऋषियों ने स्वीकार किया है| सिद्धाश्रम अपने आप में अति-दुर्लभ और महत्वपूर्ण संस्थान है जो आध्यात्मिक जीवन का एक बिन्दु है| और जहां से पूर्ण विश्व का आध्यात्मिक जीवन संचालित होता है, क्योंकि विश्व तब तक जीवित है, जब तक भौतिकता और आध्यात्मिकता का बराबर सुखद सम्बन्ध रहे, बैलेन्स रहे| ज्योही यह बैलेन्स बिगड़ता है तो यह विश्व अपने आप में प्रलय की स्टेज में चला जाता है| जिस समय भौतिकता बहुत अधिक बढ़ जायेगी| चारो तरफ बम गिरेंगे प्रत्येक देश एक दुसरे पर अतिक्रमण करेगा, एक देश दुसरे देश पर परमाणु बम गिरायेंगे और कोई भी देश बचेगा नहीं| न बम गिराने वाला और न बम झेलने वाला और इसी को प्रलय कहते हैं| और यदि आध्यात्मिकता का ही बाहुल्य हो जाये और भौतिकता जीवन में रहे ही नहीं तब भी प्रलय हो जाएगा| इसलिए इन दोनों का समन्वय होना जरूरी है| मगर इस भौतिकता के लिये कुछ प्रयत्न नहीं करना पड़ता, झूठ के लिये, हिंसा के लिये, कपट के लिये कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वह तो एक सामान्य सी बात है|

मनुष्य की दुःप्रवृतियां तो अपने आप में जन्म लेती है उनको बैलेन्स करने के लिये सिद्धाश्रम अपने आप में कुछ विशिष्ट योगियों को, कुछ विशिष्ट महात्माओं को इस मृत्यु लोक में उन प्राणियों के बीच भेजता है| वे चाहे राम हो, वे चाहे कृष्ण हो, वे चाहे बुद्ध हो, वे चाहे महावीर हो, वे चाहे शंकराचार्य हो, चाहे ईसामसीह हो, चाहे सुकरात हो वे अपने ज्ञान के सन्देश के माध्यम से, अपनी चेतना के माध्यम से अपनी पवित्रता, अपनी विद्वत्ता के माध्यम से उन लोगों के अन्दर ज्ञान और चेतना पैदा करते हैं| यद्यपि इस तरह की चेतना पैदा करने वालों को बहुत सी गालियां मिलती हैं| क्योंकि वे अंधे हैं, वे भौतिकताओं से ग्रस्त हैं और उनके पास झूठ, छल और कपट के अलावा कोई रास्ता नहीं है और वो जब इस प्रकार की बातें सुनते हैं तब वो सोचते हैं कि उनके अधिकार पर हनन है| यह व्यक्ति हमारे जीवन को पूरी जमा पूंजी को समाप्त कर रहा है| हमारे स्वार्थों पर चोट कर रहा है, एक प्रकार से उन्हें अपने गुरुर का हनन होते हुए दिखाई देता है| इसलिए उनके द्वारा उस व्यक्ति का प्रताडन होता है| इसलिए उसको गालियां दी जाती हैं उसको मार दिया जाता है, उसको समाप्त कर दिया जाता है|

मगर उनके समाप्त कर देने से वह समाप्त नहीं हो जाता है| देह तो टूट जाती है, देह तो गिर जाति है| मगर अंगुष्ठ मात्र के प्राण पुनः नई देह धारण करके उस सिद्धाश्रम में जन्म लेते हैं या सिद्धाश्रम में वापिस संचालित करने लग जाते हैं| इसके लिये तो कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता| यह तो इसी प्रकार से है जैसे मैंने कुर्ता पहना और यदि कुर्ता घिस गया है या पुराना हो गया है, मैंने उस कुरते को उतार दिया और दूसरा कुर्ता धारण कर लिया| इस कपडे बदलने से कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं आया| ठीक उसी प्रकार से यदि यह शरीर घिस जाता है, यह कमजोर पड़ जाताहै, शरीर की नाड़ियां, अंग-प्रत्यंग शिथिल हो जाते हैं और दूसरा नया शरीर धारण कर लेते हैं| ऐसा का ऐसा ही शरीर, ऐसी की ऐसी आंखे और नाक, हाथ-पांव, लम्बाई, चौड़ाई, ज्यों कि त्यों अपने आप में स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं| जिस प्रकार से अपने शरीर के ऊपर की चमड़ी किसी चोट से छिल जाती हैं, उसी जगह अपने आप स्वतः दूसरी चमड़ी आ जाती है| उसी प्रकार से यह देह गिरती है, उसी जगह दूसरी देह स्वतः अपने आप में आ जाती है| यह तो साधना के बल पर संभव है और इसलिए उस सिद्धाश्रम में योगियों को १००, २००, ३००, ४००, ५००, १०००, २००० वर्षों की आयु प्राप्त है| वे इस समय भी सिद्धाश्रम में विद्यमान हैं|

कोई भी पानी आंखों से उस सिद्धाश्र के योगियों को देख सकता है, उनके पास बैठ सकता है, उनके प्रवचन सुन सकता है, उनके ज्ञान और चेतना को अपने ह्रदय में उतार सकता है और कोई भी व्यक्ति आज भी यदि चाहे राम के पास बैठ करके, युद्ध कला के बारे में सीख सकता है, कृष्ण के पास बैठ करके गीता का सन्देश सुन सकता है, कृष्ण के पास बैठ करके शांकरभाष्य को वापिस उनके मुख से सुन सकता है| यह तो कोई कठिन नहीं है, यह तो आपको उस स्टेज पर पहुंचने की जरूरत है, आपकी क्षमता उस स्टेज पर पहुंचने की हो, आपके पास एक समर्थ और योग्य गुरु हो|

समर्थ और योग्य गुरु का मतलब यह है कि उसको ऐसी सिद्धियां प्राप्त हो, ऐसी समर्थता प्राप्त हो और जो ले जा सके आपको अपने साथ सिद्धाश्रम में, दिखा सकें सिद्धाश्रम के योगियों को, उनके पास बैठा सकें, उनका खुद भी सम्मान हो, वह खुद भी अपने आप में उंचाई पर पहुंचा हुआ हो| ऐसा नहीं है कि ऐसा गुरु इस पृथ्वी पर है ही नहीं है, यह अलग बात है कि हमारी आंखे उनको नहीं देख पाती, यह अलग बात है कि हमारी बुद्धि ऐसे व्यक्ति के पास बैठते हुए भे आलोचना, झूठ और छल-कपट में लिप्त रहती हैं| एक-एक क्षण हा दुसरे कार्यों में व्यतीत कर देते हैं| मगर उन गुरु को हम न पहचान पाते है, न उनके पास बैठ करके उस आनन्द को प्राप्त कर पाते हैं| हमें जो प्रश्न करने चाहिए, वो तो प्रश्न हम करते ही नहीं, जो कुछ हमें सीखना चाहिए वो तो हम सीखते ही नहीं, जो कुछ सेवा हमें करनी चाहिए वो हम करते ही नहीं, जो कुछ हमें उनके सान्निध्य में अनुभव प्राप्त करना चाहिए, वे आनन्द हम नहीं प्राप्त कर पाते ये हमारे जीवन की विडम्बना है, ये हमारे जीवन की कमी है, ये हमारी दुर्बुद्धि है, ये हमारा दुर्भाग्य है|

प्रत्येक युग में और प्रत्येक परिशिती में सिद्धाश्रम के इस प्रकार के योगी, अलग-अलग नामों में, अलग-अलग रूपों में इस पृथ्वी तल पर अवतरित हुए हैं, विचरण किये हैं और आम लोगों की तरह रहे हैं| उन्होनें कुछ विशिष्टता राखी नहीं, इसलिए विशिष्टता नहीं राखी क्योंकि आम आदमी, आम आदमी को समझा सकता है| समाज का एक भाग बनकर के समाज के लोगों को अपनी ज्ञान चेतना दे सकता है| ईसा मसीह एक सामान्य व्यक्ति बनकर के अपने उन अनुयायियों को ज्ञान-चेतना शिक्षा-दीक्षा दे सकें| कृष्ण एक सामान्य मानव बनकर के, सारथी बनकर के अर्जुन को और दुसरे लोगों को दीक्षा दे सकें| भीष्म पितामह उन्हें पहचान सकें| वे पहचान सकें कि वे अपने आप में एक अद्वितीय पुरुष है| पर आम आदमी तो उनको नहीं पहचान सकता, गीता जैसा ज्ञान, चिन्तन उच्च कोटि की चेतना देने वाला व्यक्ति एक सामान्य व्यक्ति नहीं हो सकता| मगर उन्हें कितनों ने पहचाना, कितने लोगों ने पहचाना, नहीं पहचाना वो अपने आप में एक मौका चूक गए और जिन्होनें पहचाना वो अपने आप में अद्वितीय बन गये|

और उसके बाद फिर सिद्धाश्रम से बुद्ध आये, महावीर आये, फिर शंकराचार्य आये| जीवन में इस प्रकार के महापुरुष पृथ्वी तल पर तो अवतरित होते ही रहते हैं| यह हमारा सौभाग्य है कि हमारी पीढ़ी में इस प्रकार के युगपुरुष विद्यमान हैं| यह हमारा सौभाग्य है कि इस पीढ़ी में इन युगपुरुषों के साथ हमें कुछ दिन रहने का मौका मिला यह हमारा और हमारी पीढ़ी का सौभाग्य है कि हम उनसे परिचित हैं और यह भी सौभाग्य है कि हा उनके साथ रह सकते हैं| मगर यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम चाहते हुए भी उनके पास नहीं बैठ पाते, क्योंकि चारों तरफ व्यस्तताएं, मजबूरियां, परेशानियां, बाधाओं से हम इतने अधिक घिर जाते हैं कि उन्हीं को प्राथमिकता दे देते हैं| उन सारे बंधनों-बाधाओं-परेशानियों को तोड़ कर उस जगह पहुंचने की क्षमता नहीं रख पाते, यह हमारे जीवन की कमी है| यह हमारे जीवन कि दैन्यता है और जब तक की यह न्यूनता रहेगी तब तक उस आनन्द को, उस क्षण को प्राप्त नहीं कर सकेंगे और हमारे पास पछतावे के अलावा कुछ नहीं रहेगा और फिर तुम अहसास करोगे कि वास्तव में ही तुम्हारे पास एक सुनहरा सा मौका था, एक अद्वितीय अवसर था और तुम चूक गये| इसलिए जो मैं स्पष्ट कर रहा था वो बात यह है कि उस मृत्योर्मा साधना के माध्यम से आज भी हजारों-हजारों योगी, संन्यासी कई-कई वर्षों की आयु प्राप्त कर बैठे हैं और हम अपनी आंखों से उनको देख सकते हैं| उन पांच सौ साल आयु प्राप्त योगियों को भी, उन हजार साल प्राप्त योगियों को भी और पांच सौ साल की आयु प्राप्त करने के बावजूद भी उनके शरीर में कोई अन्तर नहीं आया और उन्हें देखने से ऐसा लगता हैं कि ये तो केवल पचास और साठ साल के व्यक्ति है| ऐसा लगता है कि अभी तो इनका यौवन बरकरार है, इनमे ताकत है, इनमें क्षमता है, इनमें पौरुषता है, इनमें पूर्णता है और यह सब कुछ मृत्योर्मा अमृतंगमय साधना के माध्यम से ही संभव है|


[ यह प्रवचन जारी रहेगा.... ]
-सदगुरुदेव स्वामी निखिलेश्वरानन्द परमहंस